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अध्यात्म-दर्शन
और प्रेमपान दोनों में अभिन्नना, कवावयना या नद्र पना हो जाना दी वाग्नविक लोकोतर पनिरगन है।
लोकोत्तर पतिरंजन में सोग्य तप उपयुक गाथा में शुद्धचेतना रा परमात्मचेतना रे गार गाय जाने को ही वास्तविक पनिरजन रहा है, जो गुद्धचेतना की जाटमा नी भावना है, परन्तु इमरे दौरान जो भी वाय या नाभ्यन्तर नप तोगा, यह लक्ष्य की दिशा में ले जाने वाला होगा , जैसे नोना, चादी आदि दी धातुको को एकमेक करने के लिए उसे कदाचिन् ५०० डिग्री नन का नाप देना पड़ना है, वैसे ही परमात्मा के साथ आत्मा स मिलन गारने के लिए मन, बनन, काया की इतनी उत्कट तीन दमा, स्वाभाविक रूप में भूख, प्यास, गर्दी, गर्मी आदि को ममभाव से नहने के रूप में बाह्य तप, तथा अस्मिादि अनगालन के रूप मे ध्यान, कायोत्सर्ग, वयाबृत्य, स्वाध्याय, प्रायश्चित्त , विनय आदि आभ्यन्तर तप करने पड नकते है । लेकिन उन तप को हम चल देताप नहीं कहेंगे , क्योकि वह उत्कृष्ट रमायनपूर्वक आत्मा की परमविणुद्धदमा की प्राप्ति के लिए स्वाभाविक रूप मे होने वाना मोद्देश्य नग है।
मासारिका प्रेम को पतिरजन के विषय में निरर्थक बताने के बाद कई व्यक्ति किमी में प्रेम करना या प्रेम प्राप्त करना बिलकुल नहीं चाहते, यह मान्यता भी भ्रान्तिमूलक है, उसे बनाने के लिए आगे की गाथा मे श्रीआनन्दघनजी कहते है
कोई कहे लीला रे अलख-अलख तणीरे, लख पूरे मन आस । दोषरहित ने लीला नवि घटे रे, लीला दोष-विलास ॥
ऋषभ०॥॥
___ अर्थ
कोई (वैदिक आदि सम्प्रदाय वाले) कहते हैं कि ईश्वर (परमात्मा) तो लक्ष (जिसके स्वरूप को जानकारी या पहिचान न हो सके, ऐसा) है, इस रे दृश्यमान जगत् को अदृश्यल्प रचना, उसी ईश्वर की लीला है। अत इस ला को जान लेने पर वह अलक्ष ईश्वर मन की सभी माशाएँ पूर्ण कर देता । परन्तु योगीश्वर आनन्दघनजी कहते है कि परमात्मा (बाह्यचक्षुओ से