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अध्यात्म-दर्गन
रचना को अपनी लीला मी दिगारंग गोकि नीरा उनि महोती है, जो ज्ञान एव गुग की परिपूर्णता मे ही गमय । मागीलोरा प्रत्यक्ष दोपयुक्त ही है । परमात्मा जन्म-गरण ह नर में ना पानी पी दोपयक्त प्रवृत्ति मे यो पढेंगे ?
अलक्ष्य परमात्मा के लक्ष्यनमको साप प्रोनि उक्त मान्यता बालो का मन है-म मानते है कि परमात्मा को बिनमुन अन्नध्य-अदृश्य, अव्यक्त हैं , गनुप्प की बुद्धि में पर-जगम्य है। पंग परदा का ध्यान करने के लिए भी कई योगी बाग अनय (अनन्त्र की ध्वनि परी) जगाते हैं। अत ऐने अनदय गे गे लक्ष्यम्बका अवतरित होना, होता है। भक्तिमार्गी लोगो ने ऐसे अन्नक्ष्य को ब्रह्मा, विष्णु और महं. इन नीला लक्ष्यस्पो मे वल्पित किया है, यानी उनका कहना है कि ब्रह्मा सृष्टि का उत्पादन करता है, विष्णु उसका भरक्षण करता है और महेश (शिव) उसका महार करता है। रे तीनो परब्रह्म परमात्मा के लक्ष्यरूप है। अनदयमा परमात्मा के इन लक्ष्यम्पों की जव इच्छा होगी, तभी नथ्य के गार हमारी गच्ची मीनि होगी। उन्ही की इच्छा बन्नवान है । परमात्मा गये लक्ष्यस्प ही हमारी आगाओ को पूर्ण करेंगे। इसलिए कुछ करने की जरूरत नहीं। जब ये नया गगवान् तुष्ट होंगे, नभी परमात्मप्रीति प्राप्त होगी। यही पारण कि भक्तिमार्गीय लोगो ने इन लक्ष्यरूप भगवानो को परमात्मा के अवतार, पैगम्बर, चा ममीहा (प्रभुपुत्र) मान कर उन्हें प्रसन्न करने करने के लिए कीर्तन, धुन, नामोच्चारण आदि विधियाँ प्रचलिन की । उनको रिझाने के लिए नृत्य-गीत, वाद्य आदि का आयोजन किया ; परन्तु यह गव भ्रान्ति है, क्योंकि इसके पीछे मवम वढा अज्ञान तो कर्म-सिद्धान्त का है। प्राणी जमा-जमा कर्म करता है, वैस-वैसा ही फल उसे स्वय को मिलता है। पुद के मिवाय दूनग कोई उसके शुभ या अशुभ कर्म को वदलने और अच्छा या बुग फल देने मे समर्थ नहीं है । दूसरी मूल यह है कि जीवन मे हिमा, अगत्य आदि का त्याग या परभावी में रमणता का त्याग किये विना तथा स्वभाव मे तथा हिना आदि आत्मिक गुणो मे रमण किये विना अथवा कर्तव्यकर्म छोड़ पर सिर्फ परमात्मा या उनके लक्ष्यरूप अवतागे के गुणगान करने आदि मे परमात्मा की प्रीति या प्रगन्नना गम्पादन करने की बात व्यर्थ चेष्टा है, वालचेप्टा है। क्या