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आत्मा और परमात्मा के बीच अन्तर-भंग
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कई लड्डू छोटे होते है, कई बड़े होते है । गी प्रकार कर्मों की वर्गणा (संख्या) जिरामे नियत होती है, कि अमुक कर्म कितनी कर्मवर्गणा का बना हुआ है। तद्नुसार एक-दो हजार-लाख वगैरह की राख्या नियत की जाती है। तथा अमुक-अमुक (कर्मप्रदेशो) कर्मवर्गणा के पुद्गलरकन्धो के जत्थो का नियमन भी प्रदेशवन्ध मे होता है।
उक्त दृष्टि से प्रत्येक कर्मबन्ध चार-चार प्रकार का समझना चाहिए। प्रकृति-कर्मों की मूल प्रकृतियां ८ है-(१) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शनावरणीय, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयुष्य, (९) नाम, (७) गोत्र, (८) अन्तराय । इन आठो की उत्तर-प्रकृतियां १५८ हैं ...---ज्ञानावरणीय की ५, दर्शनावरणीय की ६, वेदनीय की २, मोहनीय की २८, आयुप्य की-४, नामकर्म की १०३, गोत्रकर्ग की २, और अन्तरायकर्म की ५। .
घाती-अघाती कर्म-इन-आठो कर्मों और उनकी उत्तरप्रकृतियो मे से ४ घातीकर्म है और ८ अघानीकर्म है।
' बन्ध-आत्मा के शुभाशुभ अध्यवसायो अर्थात् भावकों के निमित्त से आत्म-प्रदेशो के साथ कर्मपुद्गलो का क्षीरनीर-न्याय से जुड़ जाने से द्रव्यकर्मदल का ग्रहण होता है और प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप मे वन्धने यानी कर्मो के आत्मप्रदेश के साथ जुड जाने के कारण वन्ध (कर्मवन्ध) कहलाता है। १ से ले कर १४ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान मे कितने कर्मो का बन्ध होता है, इसका विचार भी वन्ध के अन्तर्गत किया जाता है।
उदय-जो शुभाशुभ कर्म आत्मा के साथ वन्य (लगे) है, उनका काल जव परिपक्व हो कर कर्मफल देने को तैयार होता है, उस उदयकाल को उदय कहते हैं। किस गुणस्थान मे कितने-कितने कर्म उदय मे आते है, जब कर्म
१. चारो बन्धो का लक्षण श्लोक मे देखिए
'प्रकृति , समुदाय स्यात्, स्थिति. कालावधारणम् ।
अनुभागो रसो ज्ञेय. , प्रदेशो दलसंचय. । २ इसका विशेप विस्तार कर्मग्रन्थ आदि से समझ लेना चाहिए। '