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________________ २६२ अध्यात्म-दर्शन है। जैसे गनी, ऊपडनावड, विगही जोर बूढानरंट भी जगह गाजकिय विना उस पर कोई गोबर का लेपन करता है, तो वह फिजूा जाता है, किन्तु साफ की हुई, शुद्ध तगभूमि पर किया हआ लेपन की सार्थक हाता है। वैसे ही श्रद्धा से साफ की हुई मुल आत्मभूमि (पा चिन मि) पर दगुरुधन की लगन में की हुई शोध भी तभी फलित होती है, और नमी आत्मभूमि पर किया हुआ क्रिया का लेपन स्थायी और कारगर होता है। ' इस स्तुति मे श्रीआनन्दघनजी ने एक अध्यात्म मानक को अध्यात्म ' की बुनियाद पक्की करने का स्पंप्ट मकेत दिया है और उनके लिए उसे प्रतिक्षण यह चिन्तन करने के लिए बाध्य दिया है कि विशुद्ध देव-गुरु-धर्म कैसे मिल सकते हैं ? इनकी नेवाभक्ति में कैसे प्राप्त हो मपनी है ? शुद्ध और अशुद्ध देव के, पवित्र और अपवित्र गुरु में तथा सद्धर्म और कुधर्म के क्या-क्या लक्षण हैं ? इन्हे कसे पहिचाने । उनकी शुद्धता और शुद्ध प्रज्ञा कैसे टिक सकती है ? गुरु के लक्षण तो 'आतमनानी श्रमण पाहावे, आदि पदो द्वारा श्रीआनन्दधनजी पहले बना चुके है, देव के विषय में भी आगे एक म्तुति मे विस्तार से कहा जाएगा । ___ अगली गाथा में शुढ चारित की पहिचान के लिए श्रीआनदंघनजी 'निर्भीक हो कर स्पष्ट सत्य कह देते हैंपाप नहीं कोई उत्सूत्र-भाषण जिस्यो, धर्म नहीं कोई जग सूत्रसरीखो। सूत्र अनुसार जे भविक किरिया करे, तेहनो सुद्ध, चारित्र परीखो। अर्थ जगत् मे उत्सूत्रभाषण (श्रुत या सिद्धान्त से विरुद्ध प्ररूपण) जैसा कोई भी पाप (अशुभफल) नहीं है, इसी तरह सूत्रानुसार प्ररूपण-आचरण के सरोखा कोई धर्म नहीं है । वास्तव मे सूत्रानुसार जो भव्य साधक क्रिया करता है, उसी का चारित्र शुद्ध समझो। उसके शुद्धचारित्रं की इसी प्रकार परख लो। ' भाष्य साधक के शुद्धचारित्र की परख '' ससार मे वहुत-से साधक ऐसे हैं, जो मृतागही है, पथ-गच्छवादी हैं या सम्प्रदायवादी हैं, अथवा स्वकपोलकल्पित देव-गुरु-धर्म की मान्यता को . .
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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