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वीतराग परमात्मा की चरणसेवा
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प्ररूपणा करते हैं, या फिर वे अपना मनमाना विचार-आचार बना लेते है । ये और ऐसे लोग अपनी मानी हुई बात पर शास्त्र की। छाप लगाते है, शास्त्र की दुहाई देते हैं, शास्त्र का प्रमाण देते हैं और शब्दो की खीचतान · करके अपनी अयथार्थ वात को 'शास्त्रसम्मत सिद्ध करने का प्रयास करते हैं, ऐसे , महानुभाव उत्सूत्रभापी है, वे सिद्धान्तविरुद्ध, सूत्रो (श्र तो), से विपरीत श्रद्धा, प्ररूपणा और आचरण करते हैं। उनका; यह कार्य पाप हे, जो बहुत ही घोर है जिसका फल भी भयकर अशुभ है। . . . . . .
उत्सूत्रभापण का रहस्यार्थ है-सिद्धान्त 'या वीतरांगवचन "(श्रुत) से निरपेक्ष प्ररूपण करना, सूत्रनिरपेक्ष आचरण एवं श्रद्धाने करना। वास्तव मे शास्त्र या सूत्रमाधक के लिए कार्य कार्य का निर्णय देते है। जब साधना मे कोई उलझन, बहम, शका या सशय आ पडे, तब शास्त्र ही उस अधेरे मे प्रकाश का काम करता है । भगवद्गीता में भी कहा है कि तुम्हारे लिए कार्य और अकार्य की व्यवस्था मे शास्त्र ही प्रमाण हैं । जो शास्त्रोक्त विधिविधान को छोड कर अपनी स्वच्छन्दता से मनमामी प्रवृत्ति करता है, वह 'सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता। इस दृष्टि से जो व्यक्ति शास्त्रविहित सिद्धान्त-सम्मत बातो की उपेक्षा करते हैं या उनकी मखौल उड़ाते हैं और मनाना प्रचार करते है, 'मनमाना आचरण करते है, वे पाप करते हैं। इसीलिए श्रीआनन्दधनजी सूत्र-सिद्धान्त से विरुद्ध प्ररूपण को पाप' और सूत्रसम्मत प्ररूपण व आचरण को धर्म कहते हैं । प्राणातिपात आदि १८ पापस्थानो मे सबसे बड़ा पाप', मिथ्यादर्शनशत्य है.। सबसे बडा धर्म सूत्र-चारित्रधर्म है। ..... .. .... .. . .: - __- नयप्रमाणयुक्त जिनप्रवचन सूत्र कहलाता है, जो कथन नयो और प्रमाणो से अनुप्राणित अनेकान्तदृष्टि मे निश्चय-व्यवहार, दोनो को मद्देनजर रख कर किया जाता है, उसे भी जिनवचनसापेक्ष (सूत्रसम्मत) भापण कहा जा सकता है । इस दृष्टि से उक्त गाथा को भावार्थ यह होता है कि जिनवचन
, १ तस्माच्छास्त्र प्रमाण ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
य शास्त्रविधिमुत्सृत्य वर्तते कामकारत । .. .. न स सिद्धिमवाप्नोति -- - .