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परमात्मा के चरणों में आत्मसमर्पण
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से पक्की निष्ठा हो जाने पर गरीर पर से उमका ममत्व छूट जाता है, देहा -ध्यास या देहासक्ति छूटने पर वही शरीर के बार-बार जन्म-मरण से छुटकारा पा जाता है । ऐसा आत्मनिष्ट व्यक्ति स्वप्न मे भी खुद शरीर मे है, या शरीर खुद का है, इस प्रकार शरीर के प्रति आसक्ति या अध्यास नही करता । इसलिए स्वप्न मे भी देह नष्ट हो जाय तो भी उसे रज नही होता। ऐसे आत्मनिष्ठ को गरीर के आश्रित जाति, लिंग, वेप, वर्ण, प्रान्त, देश आदि का अभिमान (मद) नहीं होता । इमप्रकार का अन्तरात्मा जो कुछ भी प्रवृत्ति या क्रिया सोते या जागते करेगा, उसमे उसे पाप-कर्म का बन्ध नही होगा । शुभ और अशुभ दोनो भावो को वह कर्मवन्ध का कारण जान कर जहाँ तक हो सके, आत्मा शुद्ध भाव मे ही रमण करेगा, जहां अशक्य होगा, वहां विना मन से शुभ भाव को अपनाएगा, किन्तु अशुभभाव को तो हर्गिज नही अपनाएगा। इस प्रकार अन्तरात्मा आत्मा को सिद्धस्वरूप अनुभव करके आत्माराधन द्वारा परमात्मत्व को प्राप्त कर लेता है।
आत्मा का तृतीय प्रकार : परमात्मा जो आत्मा. अनन्तज्ञान के आनन्द से परिपूर्ण है , अठारह दोपो से रहित परम पवित्र है, शरीर के अध्यास के कारण होने वाली समस्त उपाधियो से मे रहित हे, जो इन्द्रियातीत ज्ञानादि अनन्तगुणो का भडार है, वही परमात्मा है । उसका नाम चाहे जो कुछ हो । जैनदर्शन इतना उदार है कि वह किसी जाति, देश, वेप, वर्ण, लिंग आदि के साथ परमात्मपद को नही वाधता । किसी भी जाति , देश, वेप, वर्ण, सघ, या लिंग आदि का स्त्री-पुरुष आत्माराधन करके परमात्मा बन सकता है। ऐसा परमात्मा इन्द्रियातीत इसलिए है कि वह इन्द्रियो से परे है, इन्द्रियो का विषय नही है, जहाँ इन्द्रियो का विपय और वल काम नहीं कर सकते, जहाँ विकल्पात्मक बुद्धि कु ठित हो जाती है, वहाँ अनन्त केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तवीर्य आदि गुणो की परिपूर्णता से ही परमात्मा परिलक्षित हो सकता है।
चू कि पूर्वोक्त गाथा मे समस्त देहधारी आत्माओ के ही ये तीन प्रकार वताए थे, इसलिए यहाँ समस्तकर्म, काया, आदि से मुक्त, सिद्ध निरजन, अगरीरी परमात्मा का उल्लेख न कर देह गे रहते हुए जो देहाध्यास से
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