SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२० अध्यात्म-दर्शन गर्वधा मुक्त हो कर नार प्राार के पानीका में भी मुक हो चुरो है, ऐना पर. मात्मा ही विवक्षित है । गे परमात्मा चीनगग अनीनकोप हो र प्राय तरते है, और दूगगे को गगार-गागर मे नग्ने ना गागं बनातं ?। ऐगा परमात्म गाय शिगी ने दे दने म नहीं मिलता, और न किसी को पा का फल है यह नो अन्तरात्मा स्वयं पुरमा में, ग्वन प्रेग्नि आन्म. माधना से प्राप्त होता है। गी परमात्मनार पी गिदि पाप्न करना अध्यात्मगाधा के जीवन का लक्ष्य है। श्री आनन्दघनजी ने 'इम परमातम साध' कह कर प्रत्येक मान्मनिष्ठ साधक के द्वारा वीतराग परमात्मा के चरणों में पान्म समर्पण एव तदनुसार आत्म-साधना के स्वय पुरुषार्थ से परमात्मन्य को सिद्ध करने ना निदंग किया है। साथ ही इससे अन्य दर्शनो की जात्मविनान से विपरीत इस मान्यता का निराकरण भी द्योतित कर दिया है कि परब्रह्म परमात्मा कोई एक ही व्यक्ति हो सकता है, या परब्रह्म परमात्मा को आत्मसमर्पण करने के बाद सदा के लिए उसी की गुलामी, जी-हजूरी या उसके सामने स्वयं की लघुना प्रदर्शित करते रहना है और स्वयं मे परमात्मपद प्राप्त बरने की असमर्थता प्रगट करना है । वास्तव में निश्चयदृष्टि से तो परमशुद्ध आत्मा मे सतत रमणता ही आत्मा की परमात्म-गमर्पणता है, और उगमे आत्मा ग्वयमेव परमात्मा हो । जाता है। 'साराग यह है कि इन तीनों गाथाओं में बताए हए। तीन प्रकार की आत्मा की अवम्याओ का ज्ञान परमात्म-समर्पण के लिए आवश्यक है। 'मैं' और 'मेरे' की ममता मे जव नक आत्मा घिरा हुआ रहता है, तब तक वह जीव आत्मा तो है, परन्तु बहिरात्मा समझा जाता है । जब आत्मा अपने को देह से भिन्न मान कर देहाध्यास छोड देता है, परभावो या आत्म-भिन्न सर्व वैभाविक भावो या पदार्थों मे अहना-ममता की मान्यता का त्याग करके शान्न, मयमी, व आत्मनिष्ठ बनता है तब वह अलगत्मा कहलाता है, और जव वह पूर्ण अध्यात्मयोगी वनकर अपनी आत्मा मे मचा लीन हो जाता है, तब उसमे १८ दोप मिट जाते है, वह परम पवित्र, अनन्त गुणो की खान, और नानानन्द बन जाता है, तब परमात्मा बनना है ।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy