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सच्ची परमात्म-प्रीति
त्याग जितना मंकीर्ण दायरे में होगा, उतना ही उपाधि का दायरा बढता जायगा, और जितना व्यापक विशाल दायरे मे होगा, उतना ही उपाधि का दायरा कम होता जायगा । इसीलिए एक आध्यात्मिक पुम्प ने साधक को परामर्ण दिया है
'यदि अहता-ममता का सर्वथा त्याग नही कर सकते तो अहताममता को व्यापक कर दो, सर्वत्र फैला दो।'
अर्थात् -- शरीर, परिवार, जाति, प्रान्त, राष्ट्र आदि पर जो अहता-ममता है, उसे इन सवसे ऊपर उठ कर सारे विश्व के प्राणियो तक पहुचा दो। समम्न प्राणियों को आत्मतुल्यदृष्टि से देखो, सर्वभूतमैत्री और विश्ववात्सल्य की दृष्टि मे व्यवहार करो । निष्कर्ष यह है एक शरीर में रहते हुए भी अपने शरीर आदि के प्रति ममत्त्वदृष्टि से न सोच कर सारी मानवजाति की दृष्टि ' मे और यहाँ तक कि बढ़ते-बढ़ते सर्वप्राणिमात्र की दृष्टि से सोचो, विश्व
की समस्त आत्माओं के प्रति श्रद्धा और निष्ठा रखो, विरोधी, दुर्गुणी अथवा पापी आत्माओ के प्रति भी घृणा, द्वेप ईर्ष्या या वैरभाव छोड कर उनमे भी विराजित निरावरण चेतना को देखो और उनके साथ भी समता का व्यवहार करो । अपनी व्यक्तिचेतना को विश्वचेतना मे विलीन करने का प्रयत्न करो। इस प्रकार की विश्ववत्सलना सर्वभूतमैत्री या मर्वभूतात्मभूतदृष्टि रखते हुए जव धर्मसंघ, देश या जाति के प्रति विशिष्ट सामूहिक प्रीति-सम्बन्ध होगा तो उसमे उपाधि का अश बहुत-ही कम हो जायगा।२ । । ___ कदाचित् देहादि-मयोगवश निरुपाधिक प्रीतिसम्बन्ध मे स्खलना आ भी जायगी तो भी वह बहुत सूक्ष्म होगी, उसका परिमार्जन. या शुद्धीकरण भी प्रतिक्रमण, आत्मनिन्दा (पश्चात्ताप), गर्हणा, प्रायश्चित्त आदि से हो सकेगा। परन्तु इसके साधक को तादाम्य-ताटस्थ्य का तथा अनायास-आयास का विवेक एव अप्रमादयुक्त जागृति रखना बहुत ही आवश्यक है। इस दृष्टि मे सच्चे
__ "अहता-ममता-त्याग. यदि कतु न शक्यते ।
- अहता-ममता चैव सर्वत्रैव 'विधीयताम् ॥" २ विश्ववन्धुत्व आदि प्रशस्त भावनाओ मे यद्यपि प्रशस्तराग का अण
मभव है, तथापि अप्रणस्तराग (दृप्टि, स्नेह, और विपय के प्रति राग) की अपेक्षा वह बहुत ही क्षीण होगा।