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अध्यात्म-दर्शन
नाश होता है। क्योकि मानामि नीद्गाला वन्तु गा पनि गभी नागगन हैं उन्हें अपने मानने पर यानी उनमे अहना-ममता को जगा का आरोप करने पर भी वे जगनी नहीं होनी । उस क्षणागर तुओ पगार पीरिया गम्बन्ध प्रारम्भ में, मध्य में, और अन्त में भी यया पगेगमा नही होना क्योकि वह विविध उपाधियों से घिग होता है।
सना प्रीतिसम्बन्ध इमीलिए श्रीआनन्दधनजी नच्च प्रीति-गम्बन्ध का बाप बानि हुए कहते हैं---"गच्चा प्रीतिनम्बन्ध तो निम्पाधिक कहलाता है, जिनमे अनण्हता, अविच्छिनता और उपाधिमुक्तता होती है , उसमे प्रीतिसम्बन्ध. मोनिगम्बन्न वा पात्र एवं प्रीनि-सम्बन्धका तीनों में निम्पाधिकता होती है। न प्रीनिसम्बन्ध के पीछे भी कोई आननि, फलाकाक्षा आदि उपाधि नहीं होती , ना प्रीति-सम्बन्ध जिसके माय जोड़ा जाता है, यह भी राग-द्वेष, मोर आदि उपाधियो से रहित ममदर्शी, विश्ववलन एव नवं भूतात्मभूत होता है, तथा प्रीति-सम्बन्ध जोडने वाला व्यक्ति भी अपने को आगध्यदेव के अनुकूल पूर्वोत्त स्वार्थ, आकाना आदि उपाधियो ने रहित आत्मस्वभावनिप्छ, आत्मपरायण बना लेता है, जिससे उने आत्मधन खोने का कोई खतरा नहीं रहता , बल्कि वह अपनी आत्मशक्तियो को प्रगट कर लेता है, आत्मगुणो का विकास पर लेता है।
निरुपाधिक प्रीति का क्रम प्रश्न होता है कि नर्वथा निरुपाधिक प्रीति तो क्षीणमोह नामक वारहवें गुणस्थान पर पहुँचे हुए व्यक्ति ही कर सकते है, उनमे नीचे की भूमिका वाले माधक की प्रीति सर्वथा निम्पाधिक नहीं होती , तब फिर एक परिवार या मघ में रहते हुए देव, गुरू, धर्ममब, देश, किसी नार्वजनिक गम्या व विश्व के साथ या मैत्रीसाधक या वात्सल्यमाधक संगठन के प्रति जो समूहगत प्रीति होती है, उसमें निम्पाधिकता कमे आ सकती है ? उनका समाधान नक्षेप मे श्रीआनन्दवनजी के दृष्टिकोण मे इस प्रकार हे "उपाधि का मूल' अना और ममता है । जितनी-जितनी जिसकी अहता-ममता अधिक तीन्न होगी, उतनी-उतनी उपाधि वदनी जायगी और जितनी-जितनी अहता- ममता मन्द होगी, उननी-उननी उपाधि कम होती जायगी। इसलिए अह्ना-ममता ना