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________________ मच्ची परमात्म-प्रीति मग-परिहार बनाम स्वभावदशापरिहार कोई कह सकता है, सग का एक अर्थ आसक्ति है, और वह तो त्याज्य मानी गई है, इसलिए परमात्मा के साथ यह कैसे सगत हो सकता है ? परन्तु यहाँ वीतरागनीति का प्रमग होने से सग का अर्थ आसक्ति नहीं, अपितु स्वभावदशा का साथ है, जिसे परमात्मदेव कभी छोडते नहीं। प्रीत-सगाई रे जगमा सहु करे रे, प्रीत सगाई न कोय । प्रीत सगाई रे निरुपाधिक कही रे, सोपाधिक धन खोय ॥ ऋषभ० ॥२॥ अर्थ जगत् मे प्रीति-सम्बन्ध तो सभी करते हैं। परन्तु ऐसे प्रीति-सम्बन्ध मे कोई दम नहीं होता। ययार्थ प्रीति-सम्बन्ध तो सर्व उपाधियो से मुक्त होता है। उपाधियो से युक्त प्रीति-सम्बन्ध तो आत्मधन को खो बैठता है। भाष्य अखण्ड प्रीति-सम्बन्ध ही आत्मस्वभावरूपी । अखण्डधन का रक्षक होता है, जबकि खण्डित प्रीतिसम्बन्ध आत्मस्वभावरूपी अखण्ड धन को नष्ट कर देता है । इसका मूल कारण उपाधि बतलाया गया है । पूर्वोक्त प्रथम पक्तियो मे अखण्डप्रीति का लक्षण बताया गया है, जबकि इसमे अखण्ड प्रीनि-सम्बन्ध का स्वरूप बताया है। जगत् का प्रेम-सम्बन्ध ... जगत् में अपनी सन्तान, परिवार, जाति, धर्मसंघ, राष्ट्र, प्रान्त आदि से अधिकाश लोग प्रेम-सम्बन्ध जोडते हैं। परन्तु यह सम्बन्ध प्राय चिरस्थायी नही होता, मनुष्य ही नही, पशु-पक्षी आदि समस्त प्रकार के जीव भी परस्पर प्रेम करते हैं, परन्तु दुनियादारी के इस प्रेम मे प्राय देहसम्बन्ध होता है । मासारिक प्रीति-सम्बन्ध के पीछे शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तुएँसौन्दर्य, स्वार्थलिप्सा, विविध कामनाएँ, भोगपणा, पुत्रपणा, वित्तषणा, इन्द्रियविपयाकाक्षा, अहपोपण आदि पौद्गलिक उपाधियाँ रहती है। जैसे दूध मे खटाई डालते ही वह फट जाता है , वैसे ही उस अखण्ड प्रीतिसम्बन्ध मे उपाधि रूपी खटाई पडते ही वह टूट (फट) जाता है। उसमे वाह्य धन, गाधन और बल का तो नाण होता ही है, आत्मगुणरूपी धन का सबसे ज्यादा
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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