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संध्यात्म-दर्शन
मीनिलम्बन्ध मे ध्येयानुयूल-अनुवन्ध जस् । अन्यथा, याष्टिमार कुटुम्ब-वाबीना, जमीन-जायदाद आदि की उपाधि छोले बाता गाधरः रन मम्बन्ध को छोड़ कर भी जिन्य-शिया, गत-गका, म्यान, प्रसिद्धि, आदि मोह्ह्वा हो कर नः उपाधियों गे घिर जायगा और न प्रीनिमम्वन्धवा विषाक्त बना लेगा। कोई कंत-कारण काप्ठभक्षण करे रे, मलशु कंतने धाय । ए मेलो नवि कदीए संभवे रे, मेलो ठाम न ठाय ॥ ऋपभ० ॥३॥
अर्थ कई मोहान्ध विवेकविफल महिलाएं पति के मिलने के लिए काठमग करती हैं (लकड़ियो की चिता पर पति के साथ जीवित जत मरती है), इस इस कारण से कि इस प्रकार करने में पति से जल्दी मिलन हो जायगा। परन्तु ऐसा मिलन किसी भी तरह सम्भव नहीं है, क्योकि मिलने वाले के तया जिससे मिलना है, उसमे मिलने के, किमी स्थान का पता नहीं है, न दोनों का कोई एक स्थान ही निश्चित है।
उपयुक्त पक्तियो में श्री आनन्दघनजी प्रीतिसम्बन्ध तो हट करने हेतु विवेकविकार व्यक्तियो के द्वारा अजमाए जाने वाले पनि-मिलन के मिथ्या उपाय बतलाते हुए कहते हैं-"कई मोहान्य एव वित्र नारियों लातुर हो कर आवेगवश, मामाजिक कुप्रथावग अथवा मोहान्यतावश या दिखावे रे लिए प्राचीनकाल में अपने मृत पति के साथ गती हो जाती थी, मुझे अगले जन्म में यही पति मिने', इग लिहाज से वे मृत पनि के माथ चिना में जल मरती थी, परन्तु इस प्रवार वा देहार्पण करके प्रीति वा प्रदान निरर्थक है। यह मान्यता मर्वथा भ्रान्तिपूर्ण है कि पति के माय जल मरने वाली स्त्री को पति मिल ही जायगा, क्योकि मभी प्राणी अपने-अपने कर्मानुवार विविध योनियो और गतियों में जन्म लेते हैं, पति और उसके माय जल मग्ने वाली पत्नी के कर्म भिन्न-भिन्न है , नलिए उन्हें गति भी भिन्न-भिन्न मिलेगी। कदाचित् दोनो को एक ही गति मिल भी जाय, फिर भी दोनो का एक ही राष्ट्र, प्रान्न, नगर
१ किमी किमी प्रति मे 'कहीए' है, उगका अर्थ होता है- 'कहीं भी' ।