________________
ध्येय के साथ ध्याता और ध्यान की एकता
॥८॥
प्रेमीपात्र जी ही नहीं सकता। इस नुकमान की तो कोई कल्पना ही नहीं की जा सकती।
आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाय तो नेमिनाथस्वामी इस जन्म मे रागप्रेरित प्रेम करने मे सभल गए और राजीमती को भी मानो सावधान करना चाहते हो, इसलिए रागजनित प्रेमसम्बन्ध को तोड डाला। ताकि राजीमती के दिल से यह भ्रम निकल जाय कि 'नेमिनाथ मी सासारिक प्रेम करने वाले हैं।' और दिल दिमाग में यह बात भी जम जाय कि मेरा उक्त भ्रम नष्ट हो गया और मैं आपके 'विश्ववात्सल्य' को समझ सकी हूं। दुनियादारी के प्यार से तो ससारपरिभ्रमण का दु.ख सह कर मैंने अपना कितना नुकसान किया है । लेकिन नेमिनाथस्वामी द्वारा गजीमती का परित्याग करने से उसे फायदा यह होने वाला है, कि उमके अन्तश्चक्षु खुल जाते हैं ।
फिर भी अभी मोह का पर्दा पूरी तौर से हटा नहीं है, इसलिए हताश राजीमतो को जव तीर्थंकरो की परम्परा का पता चला कि स्वामी नेमिनाथ मेरी वात कुछ भी सुने विना सीधे घर पर जाएगे और परोपकारबुद्धि से पूरे एक वर्ष तक लगातार प्रतिदिन एक करोड आठ लाख स्वर्ण मुद्राओ का दान देगे, तब वह अतीव नम्र हो कर मधुर ताना देती हैं-"नाथ । आप जब एक वर्ष तक उदारतापूवक दान देंगे तो उससे सभी अर्थीजन यथेष्ट वाछित वस्तु प्राप्त कर लेंगे, खासतौर से आपके सभी सेवक तो अपनी इच्छानुसार वस्तुएँ पा लेंगे। अतः वे सभी भाग्यशाली होगे, लेकिन अभागी रह गई एकमात्र आपकी यह सेविका, जिसने आठ-आठ जन्मो मे आपकी चरणसेवा की है, और इस जन्म में करने को तैयार है। इस सेविका को अपना मनोवाछित प्रीतिदान आपकी ओर से नहीं मिलेगा, मुझे प्रीतिदान न मिलने का असन्तोष रहेगा ही और जगत् मे आपकी कीर्ति और दानवीर के रूप मे जो प्रसिद्धि है.उममे आच आएगी कि और सब याचको को तो मनोवाछित पदार्थ दे दिया, लेकिन अपनी सेविका को यथेच्छ दान नहीं दिया। इसमे आपकी उदारता की कमी प्रतीत होगी। खैर, अव आपको ज्यादा क्या कहना है, आप यह भी कह सकेंगे कि इसमे मेरा क्या दोष है, लेने वाले के भाग्य (अन्तराय कर्म) का ही दोष है, मैं क्या करूं ? इसलिए मैं अब आपको दोष न दे कर अपने कर्मों को ही दोष देती हूं। मैं ही भाग्यहीन हूँ, कि मुझे मनोवाछित दान नहीं मिल