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अध्य त्म-दर्शन
रहा है । पर तु प्राणेश | आप तो अपनी ओर से उदारता वताएँ, निराश न करें, इम सेविका को। __ यहां राजीमती नेमिनाथ स्वामी पर दोपारोपण न करके पतिव्रतास्त्री की तरह स्वय अपने कर्मों का ही दोष मानती है। इससे कर्मसिद्धान्त का तत्त्वज्ञान राजीमती को हृदयगम हुआ परिलक्षित होता है ।
आध्यात्मिक दृष्टि में विचार करे तो आत्मा की अशुद्ध चेतना इस प्रकार से अपनी ओर खीचने का प्रयत्न करती ही है। राजीमती की आध्यात्मिक भृमिका की दृष्टि से नेमिनाथ के द्वारा विनति न स्वीकारन से उसे लाभ ही हुमा है । वापिक दान के समय भले ही भ० नेमिनाथ से उसकी इच्छा सन्तुष्ट न हुई हो, लेकिन परोक्षरूप से मोक्ष मे ले जाने वाले आत्मिक धन का दान राजीमती को अवश्य प्राप्त हो गया। इसीलिए आगे चल कर राजीमती के अन्तर से आशीर्वाद निकला-"नाथ ! आपकी मेवा का इतना महान् लाभ हो तो मैं आपकी सेविका होने मे अपने को धन्य मानती हूँ। मच्चे दानेश्वरी आप ही हैं, धन्य हो, आप सरीखे महादानी को "
अव मवसे अन्तिम दाव और फैकती है-'हे नेमिकूमार, नाथ | आप की वरात गाजे-बाजे के साथ मेरे पिता के शहर की सीमा मे आ रही थी, तभी आपको देखने के लिए भेजी हुई मेरी मखी ने आपको देख कर आने के बाद मुझे कहा--"सखि । नेमिकुमार तो रग से काले हैं। (उपलक्षण से कहूं तो) वे कुलक्षणी भी मालूम होते हैं। उनसे सावधान रहना ।" मैंने अपनी सखी को डाटते हुए वचाव करने की दृष्टि से कहा-'"भले ही वे काले हो, इससे क्या ? काली चीजें बहुत गुणवाली भी होती हैं। तू भूल रही है। आपका सारा परिवार भी काला है। कृष्ण काले हैं, आप के रिश्तेदार भी काले है। किन्तु उनके आन्तरिक गुणो को देखते हुए वे उज्ज्वल हैं, सफेद हैं।" उस समय मेरी सखी ने कहा--"सामुद्रिकशास्त्र के अनुसार तो ऊपर से काले दिखाई देने वाले मनुष्य प्राय अन्दर से भी काले सिद्ध हो सकते हैं।" उस समय तो मैं चुप हो गई। फिर भी आपके गुणो का स्मरण मुझे आपकी ओर खींच रहा था। इसलिए मैंने उसके कहने की ओर कोई ध्यान नही दिया । परन्तु कुछ ही समय बाद जब मुझे पता लगा कि नेमिकुमार तो तोरण के पास आ कर अपने रथ को वापिस लौटा ले गए हैं। मेरे किसी दोप के बिना मापने मेरे साथ प्रीति को तोड डाली, तव मुझे मखी का वह कथन याद आया ।