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अध्यात्म-दर्शन
आदि किपी विपरीतभाव मे, या गोध-द्रोह प्या-अमिमानवश रहण करना अशुद्ध आलम्बन है। शुद्धमा गे इन चार बानो के नाय देवगुरुधर्म यादि का आलम्बन लेने मे ४ मिनियां आती हैं-~-इच्छा, प्रवनि, न्ययं और मिद्धि ।
निश्चयदृष्टि से आत्मस्वरूपलक्ष्यी शुद्र आत्मा का आलम्बन भी पूर्वोक्त अशुहस्प रो न ले कर शुदरुप से लेना भी शुद्धालम्बन का अर्थ हो सकता है।
तामसीवृत्ति छोड़ कर मात्त्विावृत्ति का आश्रय अशुद्ध आलम्पनरूप प्रपच छोड कर शुद्ध आलम्बन लेना शान्तिप्राप्ति का मूल कारण है, परन्तु माथ ही व्यवहारदृष्टि गे देवगुर आदि पवित्र आलम्बनो के लिए पवित्र वृत्ति मी होनी आयश्या है। आलम्बन तो व्यवहार के नाम मे तथाकथित शुद्व अपना लिए, लेकिन वृत्ति अभी तक तामसी बनी हुई है, मिथ्यात्वग्रस्त है, अज्ञानान्धकारमयी है, वह शरीर को ही आत्मा समझ कर उसी का पोषण करने, उमी को स्वस्थ रखने आदि की चिन्ता करता है या उमी को आत्मा समझ कर उसके चिन्तन में इवा रहता है । अथवा रागी-द्वेपी, मोही, तर, शस्त्रपाणि, मदिगपायी, मासाशी अथवा श्राप दाना देव, भगेडी-गजेडी, दुय॑मनी अयवा मिथ्यादृष्टि गुरु एव वामाचार मार्ग-प्रेरक व्यभिचारोत्तेजक धर्म में उनी नामगी वृत्ति गे ओतप्रोत रहे तो वह उसके लिए शान्तिदायक या शान्तिम्वरूप का परिचायक की हो सकेगा। इसीलिए श्रीआनन्दघन जी को कहना पडा-"तामसो वृत्ति सवि परिहरी, भजे सात्त्विक साल रे।" सात्त्विका मे--ममता, दया, क्षमा, निर्लोभता, सरलता, मृदुना, लघुता, सत्यता, सयमपरायणता, तश्पचर्या, ब्रह्मचर्य अकिंचनता, त्याग आदि का समावेश हो जाता है। संक्षेप मे, आत्मघम या मुन-चारित्ररूप धर्म मात्त्विक वृत्ति में आ जाता है। इसीलिए साधक को भ-महावीर ने निर्देश किया है-१ धैर्यवान, धर्मसारथी. इन्द्रियरूपी अश्वो का दमन करने वाला एव धर्मोद्यान में रत भिक्ष धर्मस्पी वगीने में विहरण करे, ब्रह्मचर्य-आत्मम्बा मे रमण-विचरण करना ही उसके लिए समाधि है।"
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. धम्माराम चरे भिक्खू घिइम धम्मसारही । घम्मारामरए दते, बंभचेर-समाहिए ।।
--उत्तराध्ययन अ. १६