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परमात्मभक्त का अमिन्नप्रीतिरूप धर्म
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मिलता, उपेक्षा या उदासीनता ही वरती जाती है । अतः उसके मन मे स्नेह की उमि न हो, तव वहाँ एकतरफी प्रीति कैसे जम सकती है ? इस दृष्टि से मैं आपसे प्रीति करना चाहता हूं, उसके लिए प्रयत्न भी करता हूँ, आप से बातचीत करने का, कितु आप वीतराग होने के कारण कोई जवाव ही नहीं देते, किसी प्रकार का स्नेह ही नहीं दिखाते, आपके मन में भी मेरे स्नेह की कोई कीमत नहीं है, आप उदासीन है, तव आपके और मेरे बीच मे मैत्री कैसे जम सकती है या टिक सकती है ? इसलिए कहा है-'उभय मिल्या होय सधि' दोनो के मिलने वातचीत करने पर ही सन्धि (मेल या सुलह) हो सकती है।
अत अब तो मै आपकी सेवा मे जबरन पड़ा हूं, और आपसे बातचीत करने को उत्सुक हूँ।
इस प्रकार दौडते-दौडते परमात्मा के निकट पहुंचते ही साधक के मन मे विचार आया--"अब मै आपके स्वरूप को समझ गया हूं कि आप मेरे साथ प्रीति क्यो नही जोडते ?" मै अभी तक राग-द्वेप-मोह के चगुल में फंसा हुमा हूं-मुझे अभी तक सज्वलन कपायो और नोकषायो ने घेर रखा है , जिससे पुराने कर्म तो बहुत ही कम क्षीण होते है, नये अधिक वधते जाते है। जबकि आप राग-द्वेप-मोह से विलकुल परे हैं, किसी भी प्रकार के कर्मबन्धन से जकडे हुए नहीं है । अत अव यदि मुझे आपसे प्रीति जोडना हो तो आपके समान (राग-द्व प-मोहरहित एव नूतन (कर्मबन्धन से रहित) हुए बिना कोई चारा नहीं । परमात्मा के साथ प्रीति मे भग (विघ्न) डालने वाले तो राग-द्वेषादि कपायभाव है, इन्हे मुझे अवश्य दूर करना ही होगा । यही परमात्मा के साथ एकता-प्रीति-मैत्री करने का रामबाण उपाय है।"
निष्कर्ष यह है कि श्रीआनन्दघनजी ने इस गाथा मे प्रकारान्तर से परमात्मा के साथ समानता (प्रीति) स्थापित करने के हेतु सूचित कर दिया है कि अभी से निर्भीक और साहसी वन कर व्यवहार से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र (तप, जप, व्रत, सयम) के पालन मे या निश्चयनय से आत्मस्वरूप मे रमण का सत्पुरुपार्थ कर, घवरा मत । इसी पर सतत चलते रहने से तेरे रागद्वेषादि भाग जायेंगे और तू स्वय निर्वन्ध हो जायगा। फिर देखना, धर्मजिनेश (परमात्मा) और तुममे समानता आती है या नही ? बस, अप्रमत्तभाव मे प्रवेश कर । सावधान रह कर आत्मदर्शन मे आगे बढ ।