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अध्यात्म-दर्शन
इसलिए श्री आनन्दघनजी ससार के अधिकाश प्रमादी, सम्यग्दृष्टि की ज्योति से विहीन, असावधान, लापरवाह और अन्धाधुंध चलने वाले लोगों की मनोदशा का वर्णन करते हुए वाहते हैपरम निधान प्रगट मुख आगले, जगत उल्लघी जाय, जिने० ! ज्योति विना जुओ जगदीशनी, अंघोअंध पुलाय; जिनेश्वर !धर्म०॥६॥
अर्य अपने मह के सामने प्रत्यक्ष सर्वश्रीप्ठ महानिधि शुद्ध आत्मा या परमात्मा प्रगट है, फिर भी जगत् के नीव उसे लाघ कर आगे बढ़ जाते हैं, जैसे बंध के पोछे दूसरा अघा दोहता है, वैसे ही अनन्तचतुष्टयवान परमात्मा को ज्ञानर पन्योति के विना जगत् के जीव अन्धे की तरह जगत् के लोगों का अनुसरण व अनुकरण फरते हुए चलते हैं ।
भाप्य
परमात्मज्योति से रहित जीच की दगा खजाना ढूंढने के लिए जैने दीपया या प्रकाश की जरूरत पहनी है. वैसे ही गाढ मिथ्यात्वान्धकार से ढकी हुई महामून्य आत्मनिधि या परमात्मनिधि को देखने के लिए भी परमात्मा की ज्योति (सम्यग्ज्ञान दर्शन की ज्योति) की जहरत होती है। वह ज्योति जिसके पान नहीं होती, वह सामने निकट पड़ी हुई महामूल्य वस्तु (जो कि एकप्रदेशभर भी दूर नहीं है) परमनानादि गुणरत्ननिधिरूप धर्ममूर्ति नात्मा को देख नहीं पाता, वह उसे लाच कर आगे बढ़ जाता है, और दूर-सुदूर वनो, पर्वतो, गुफाओ, जड़तीर्थों या अन्य स्थानो मे ढूंढता फिरता है । "अधेनैव नीयमाना ययान्धा" वाली कहावन के अनुसार परमात्मा की सम्यग्ज्ञानज्योति से विहीन वह व्यक्ति मांसारिक मिथ्यात्वान्ध लोगो के नेतृत्व मे उनके पीछे-पीछे चलता है, उनका अनुसरण करता है । वह यह नहीं जानता कि जिस आत्मनिधिरूप खजाने की वह खोज कर रहा है, वह स्वयं ही है, स्वयरूप है । इसलिए कही भी दूर या परदेश जाने की आवश्यकता नहीं। अखण्ड, अविनाशी, परमजाननिधि आत्मगुणनिधान आत्मधन तो प्राणिमात्र मे ही प्रकाशमान है । वह अत्यन्त निकट है । उसे ढूंटने के लिए किसी स्यूल दीपक की जरूरत नहीं, सिर्फ अन्तरात्मा मे वीतराग परमात्मा के जानरूपी प्रकाश की आवश्यकता है । वास्तव मे जगत्पति परमात्मा की जगमगाती आत्मदर्शनरूपी