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________________ परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध मे समाधान ३४१ की प्राप्ति का आधार है । आत्मा के सिवाय सभी अनात्म (कर्म आदि) पदार्थ मात्मा के साथ संयोगसम्बन्ध से जुड़े हुए हैं। वास्तव मे आत्मा का चेतना, ज्ञान, दर्शन, चारित्र सुख आदि ही निजपरिकर (अपना आत्मसम्बन्धी परिवार) है, वही सारभूत एव शाश्वत है, साथ मे आने वाला है। भाष्य शुद्ध आत्मभाव ही परमशान्तिरूप है शुद्ध आत्मा अमूर्त और निराकार होने से मनुष्य अपने आसपास के दृश्यमान जगत्-शरीर, स्वजन, सम्बन्धी, मित्र, परिवार, समाज, सम्प्रदाय, मकान, धन, धान्य आदि को अपना मान कर उनसे ममत्व करता है, और इष्ट-अनिष्ट के वियोग-सयोगो मे दुाखी और अशान्त हो जाता है। परन्तु उसे यह पता नही कि ये सव पदार्य परभाव हैं, इनसे ममत्वसम्बन्ध बाधने से अशान्ति ही बढती है। स्वचेतनाधारक आत्मत्व अथवा चैतन्यगुण का आधारभूत आत्मद्रव्य का आत्मभाव ही परमशान्तिरूप हैं। इसी बात को स्पष्ट करने के लिए श्री आनन्दधनजी कहते हैं-'आपणो आतमभाव जे. . ' इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा ने विभावदशा मे अज्ञानदशा से औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्माण आदि शरीर धारण किये हैं। इसी प्रकार शरीर से सलग्न वाल्य, यौवन, बुढापा, रूप, कान्ति, नाम, आकार आदि तथा शरीर से सम्बन्धित एव शरीर के उपभोग मे आने वाले अन्न, जल, धन, मणि, माणिक्य, सोना-चांदी, मकान, दूकान आदि एव माता-पिता, भाई-भगिनी, पत्नी, पुत्र आदि परिवार, ममाज, राष्ट्र, सम्प्रदाय, नौकर-चाकर आदि सव सयोगो से उत्पन्न या प्राप्त है । इसी प्रकार काम, क्रोध, मान, माया लोभ, हास्य, रति आदि और अष्टकर्म की मूल प्रकृति आदि सब अनात्मपदार्थ है, ये सब सयोगजन्य है । इनके सयोग से आत्मा को पूर्ण शान्ति न तो हुई, न होगी और न ही होती है । सामायिक पाठ मे बताया गया है सयोगतो दुखमनन्तभेद यतोऽश्नुते जन्मवने शरीरी। ततस्त्रिधाऽसौ परिवर्जनीयो यियासुना निर्वृतिमात्मनीनाम् ।। अर्थात् जन्मरूपी वन मे आत्मा सयोग के कारण अनन्त प्रकार के दुख भोगता है। इसलिए अपनी परमणान्ति प्राप्त करने के अभिलापी आत्मा को मन-वचन-काया तीनो से सयोग का त्याग करना चाहिए।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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