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________________ ૩૪૨ अध्यात्म-दर्शन __ अत पूर्णशान्ति के लिए आत्मा के नाय इस दृश्यमान जगत् का सयोग छोडना अनिवार्य है। उसे छोडे विना वास्तविक एव न्यायी शान्ति की सम्भावना नहीं है । अत पूर्ण शन्ति के उच्टक मुमुश के लिए अपना चेननात्मक आत्मभाव ही आधार है। आत्मा का परिवार चेतना, मान, दर्गन, आदि आत्म-गुणो को ही समझो, अन्य कोई परिवार मात्मा का नहीं है । आचारांग मूत्र, में बताया है-'अप्पा तुममेव तुम मित्त कि बहिया मित्तमिच्छसि ? अर्थात् हे आत्मन् । तू ही तेरा मित्र है। बाहर के मित्र की अपेक्षा क्यो रखता है ? वास्तव मे बाहर का परिवार तो आकस्मिक गयोगजन्य है, इम जन्म या इस शरीर को ले कर है। उगे तो एका दिन छोड कर चलना होगा, अतः आत्मा या आत्मगुण ही एकमात्र मात्मा का परिवार है । 'आत्मा ही आत्मा का नाथ है, आत्मा ही आत्मा का मित्र और शत्रु है, आत्मा का आत्मा ने ही उद्धार करे किन्तु उसका पतन न करे। इसी बात्मकत्वमावना को ले कर चलने से पूर्ण शान्ति का साक्षात्कार साधक के जीवन में हो सकता है। दगदै कालिक सूत्र मे कहा है-'शरीरादि के साथ सम्बन्ध को त्याज्य समक्ष कर छोरने वाले साधक को शाश्वत शान्ति का स्थान-मोक्षपद प्राप्त होता है।' इस प्रकार शान्ति के उत्तरोत्तर क्रमश उत्कृष्ट उपाय एवं सोपान बताकर अव उपसहार करते हैं प्रभुमुखथी एम साभली, कहे आतमराम रे। ताहरे दरिसरणे निस्तर्यो, मुज सिवां सवि काम रे ॥शान्ति॥१२॥ अर्थ वीतराग प्रभु 'शान्तिनाथ' के मुख से नि.सृत वाणी सुन कर मेरा आत्माराम (आत्मारूपी वगीचे मे विहरण करने वाला) कहता है कि आपके शान्तिरूप प्रभु) के दर्शन-स्वरूप पा कर मेरा ससार-सागर से निस्तार हो चुका है और मेरे सभी कार्य सिद्ध हो गए हैं। १ अत्ता हि अत्तनो नायो • धम्मपद । अप्पामित्तममित्त च दुप्पट्टिओ सुपट्ठिओ । उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् आत्मवात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन ॥ --भगवद्गीता २ "त देहवास अतुइ असासय सया चए निच्चहि अद्विअप्पा । छिदित्त जाई-मरणस्स बंधण, उवेइ भिक्खू अपुणागमं गई ॥
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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