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अध्यात्म-दर्शन
है और इतनी मरग बनाई गई है गि दुनिया मे किली (मति) के साथ उसकी तुलना नहीं की जा सकती। उग वीतराग-प्रतिमा की दृष्टि अमृता गे मानो तरबतर है । जिसे देखते हुए नेत्रो को कभी तृप्ति नहीं होती।" मतलब यह है कि आपकी (तीर्थकरदेव की) मृति अमृत मे भगूर बनाई गई है, जिसके हाथ मे हथियार नहीं है, इस कारण रौद्ररुप नही है। जिसे देगले ही शान्ति हो जाती है। दुनिया मे तीर्थकर या वीतराग के निवास पिनी भी देव की गृनि देखें तो आपको प्रतीत होगा कि या तो उनसे हार में कोई भगार शानअम्ब होगा, अथवा उमका रूप भयकर होगा; खल्ली भांग जोर भयायने रूप को देख कर ही मनुष्य घबरा जाता है। आपसी गति तो पर्यवामन में स्थित है, किन्तु कामदेव आदि की मूर्ति के समान आपके बगल मे कोई स्त्री नहीं होती। बल्कि वह शान्तरम मे निमग्न हो, उस प्रकार की भाववाहिनी बनाई गई है । भोज राजा के दरबार में प्रसिद्ध जैनपण्डित कवि धनपाल ने शीर्थकर (देवाधिदेव) की मूर्ति के लिए उद्गार निकाले है
प्रशमरस लिमग्न दृष्टियुग्म प्रमन्न, वदनकमलमद्ध. फामिनीसगशून्यः । करयुगपि धत्त शस्त्रसम्बधवाध्य, तदसि जगति देवो वीतरागरत्वमेव ।। ___ अर्थात्--" जिसकी दोनो आवं प्रशमरस में निमग्न हैं, जिनका वदनकमत प्रमन्न है, जो स्त्रीसग से रहित है, हाथ गन्त्र के सम्बन्ध से रहित है, है वीतराग प्रभो । जगत् मे ऐसा वास्तविक देव, तू ही है।" तात्पर्य यह है कि वीतराग देव ही आदर्श एव पूज्य हैं । वहीं अनुपमेय है। मेरी आँखे आपके इस अनुपम को देख कर तृप्त ही नहीं होती।
परन्तु ध्यान रहे, स्चूलदर्शन के द्वितीय प्रकार की दृष्टि से यह अर्थ तभी सगत होता है, जब वीतराग-दर्शन के समय सम्यग्दर्शन युक्त भावधारा मन में प्रवाहित हो रही हो। भावधारा के बिना यह अर्थ बिलकुल रागत नहीं हो सकता।
अब इस स्तुति का उपमहार करते हुए श्री आनन्दघन जी वीतरागदेव से एक परमभक्त सेवक के रूप मे प्रार्थना करते हैं
एक अरज सेवक तणी, अवधारो जिनदेव । कृपा करी मुज दीजिये रे, 'आनन्दघन'-पद-सेव ॥
॥ विमल० ॥७॥