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वीतराग परमात्मा का साक्षात्कार
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अर्थ जिनदेव ! सेवक को सिर्फ एक अर्ज है, जिस पर आप ध्यान दें (लक्ष्य में लें। वह यह है कि कृपा करके मुझे आनन्दघन-परमात्मपद की सेवा दीजिए।
आनन्दघनपद-सेवा की प्रार्थना क्या और क्यो ? श्री आनन्दघनजी ने इस स्तुति की पूर्वगाथाओ मे 'साहेब, समरय तु धणीरे' तथा 'धौंगधणी माथे कियो रे' कह कर वीतरागप्रभु को स्वामी व नाथ के रूप में स्वीकार किया है, तब यह स्वाभाविक है कि वह उनके समक्ष सेवक के रूप मे (म्बामी में) उचित याचना या प्रार्थना करे। इसलिए श्री आनन्दघनजी वीतराग परमात्मा से सिर्फ एक अर्ज करते है।
कोई कह सकता है कि वीतरागप्रभु तो किसी को कोई पदार्थ देते-लेते नहीं है, वे तटस्थ भाव मे, म्वभाव मे (रागद्वेषरहित हो कर) स्थित हो कर सबका कल्याण चाहते है, फिर ऐसे वीतरागप्रमु से किसी चीज की याचना करना कहां तक उचित है ? क्योकि प्रत्येक प्राणी को अपने शुभाशुभकर्मानुसार ईप्ट या अनिष्ट वस्तु फन के रूप मे मिलती है, परमात्मा या कोई भी देव क्सिी के शुभकर्मों के फल को अशुभ में परिणत नही करते और न ही अशूभकर्मो के फल को शुभ मे बदल मकते हैं। इसका समाधान यह है कि श्रीआनन्दघनजी स्वय आध्यात्मिक माधुपुल्प है, वे कर्म के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली किसी भी वस्तु की याचना वीतरागप्रभु मे नही करते और न ही वीतरागोपासक कोई ऐसी याचना कर सकता है । वे गरीर-सम्पत्ति, पुत्र, परिवार, धन्यधान्य, भूमि, स्त्री, स्वर्गादि की ऋद्धि, मिद्धि, मणि, मत्र या औषध आदि कर्म फलजन्य भौतिक पदार्थो की याचना नहीं करते, वे अन्य सेवको की तरह लोभी नहीं हैं, और न ही मिथ्यादर्शन या अज्ञान से युक्त है । वे वर्तमान में अपनी आत्मशक्ति कम होने के कारण आध्यात्मिक शक्ति के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचे हुए वीतरागदेव मे सिर्फ एक ही, और वह भी आध्यात्मिक याचना करते हैं कि "प्रभो । इस भव मे तया परभव मे मुझे आप (मच्चिदानन्दघन परमात्मा की पदसेवा -चरणसेवा मिले।" इसे ही वे भक्ति की भाषा मे कह देते है-'कृपा करी