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________________ १२ : श्रीवासुपूज्य-जिन-स्तुति विविध चेतनाओं की दृष्टि से परम आत्मा का ज्ञान (तर्ज-तुगियागिरि शिखर सोहे, राग-गोड़ी तथा परज) वासुपूज्य जिन त्रिभुवनस्वामी, धननामी 'परनामी रे। निराकार साकार सचेतन, करम-करमफल-गामी रे॥ वासु० १॥ अर्थ श्री वासुपूज्य नामक बारहवें तीर्थकर वीतराग परमात्मा हैं । ऊवलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक, इन तीनो लोको के स्वामी हैं । वे शुद्ध चैतन्य धातुमय या अनेक नामवाले अथवा नित्य हैं , तथा आत्मगुणो के रागादिरूप शत्रुओ को नमाने वाले अथवा परिणामी (रूपान्तर होने वाले) भी हैं । वे प्रभु दर्शनोपयोग के कारण निराकार भी हैं और ज्ञानोपयोग के कारण साकार भी हैं। एवं ज्ञानादिचतुष्टय से ज्ञानचेतनामय, कर्म और कर्म के फल के कामी हैं। भाष्य विविध दृष्टियो से परमात्मा मे निहित गुण पूर्वस्तुति मे वीतरागपरमात्मा को अध्यात्म के चरमशिखर पर चढ़ने के लिए आदर्शरूप मान कर अध्यात्म की एव आध्यात्मिक वनने की प्रेरणा है, किन्तु आध्यात्मिक बनने के लिए शुद्ध (परम) आत्मा में निहित विविध आत्मगुणो का ज्ञान होना अनिवार्य है। ऐसा सोच कर थीआनन्दघनजी इस स्तुति मे परम (शुद्ध) आत्मा के गुणो का वर्णन विविध दृष्टियो से करते है। १ चूंकि भारत के बहुत-से दर्शन आत्मा को कूटस्थ नित्य मानते है । बौद्ध १ कही कही 'परनामी' के बदले 'परिणामी' पाठ भी है।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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