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अध्यात्म-दर्शन
अगली गाथा म श्रीआनन्दपनजी उन युग में प्रनलिन अप्ठनकारी अग्रपूजा के सम्बन्ध में भी भावो का तार प्रभ ने जोड़ने । लिग कहते हैं---
फूल अक्षत वर धूप पईवो, गंध नैवेद्य फल जल भरी रे। अंग-अग्रपूजा मली अडविधा, भावे भविक शुभगति वरी रे ।।
सविधि० ॥५॥
अर्थ
फूल, जल, और गंध (केसर आदि मुगधित पदार्थ) इन तीनो मे पूजा करना अगपूजा है, तथा अक्षत. श्रेष्ठ धूप, दीपक, नवेध व फल इन पाचों से पूजा करना अग्रपूजा करना है, दोनों मिल कर आठ प्रकार की पूजा है। भव्यजीव शुम हार्दिक भावो मे उसकी आराधना करके मुगति प्राप्त करते हैं।
अगपूजा और अग्रपूजा यो साय नो भावा का तार पूर्वोक्त पनप्रकारी पूजा का वर्णन करते हा श्रीआनन्दघनजी ने जैग मन साम्बी रे' कह कर मन के साक्षित्व मे--माननिय भावो को तार जोड़ कर परमात्मा की पूजा में ओतप्रोत होने का विधान किया था, उसी प्रकार यह भी जप्टनवारी पूजा मे भी गुमभावों का तार जोडने की बात कही गई है। मतलब यह है कि यहा भी पहले की तरह आठ यो गे पूजा करते समय मन मे उन द्रव्यो यो गुद्ध आत्मस्वस्प या आत्मगण की प्रेरणा के प्रतीक मान कर अगपूजा और अग्रपूजा करने से गुभगति की प्राप्ति बताई है।
अगपूजा का मतलब है-ऐगे न्यो से पूजा करना, जिनना म्पर्ग परमात्मप्रतिमा से हो तथा अग्रपूजा का मतलब है-उन दगी मे गजा करना, जिनका स्पर्श परमात्मा की प्रतिमा से नहीं होता, निर्फ प्रभु की प्रतिमा के समक्ष खडे रह कर उन्हे चढ़ाना होता है । इगलिए नहा ह-'अग-अग्रपूजा मली अडविध' यानी फूल, जल और केसर आदि गन्ध , ये तीन अगपुजायोग्य द्रव्य हैं , धूप,, अक्षत, दीप, फल और नैवेद्य ये पाच अगपूजायोग्य द्रव्य है। वर्तमान में प्रचलित पूजा मे द्रव्यो का क्रम यह है--सर्वप्रथम जल का अभिषेक, उनक वाट केसर व अन्य सुगन्धित द्रव्यो के बढाने का रिवाज है। तत्पश्चात् पुप्प,