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________________ परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा १६३० लिए मनुप्यो को कहा है कि 'मेरा धर्म आज्ञापालन में है।' तीर्थकरदेव ने दो प्रकार के धर्मों की आचरण करने की आज्ञा दी है-~आगारधर्म और अनगारवर्म । इस विनयमूलक धर्म के आचरण से क्रमश ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों की प्रकृति का क्षय करके मनुष्य लोकान-प्रतिष्ठित सिद्धि [मुक्ति]स्थान को प्राप्त कर लेता है। परन्तु यह धर्माचरण न इस लोक के किसी स्वार्थ या वासना की दृष्टि से धर्म करे, न परलोक के किसी प्रयोजन से धर्माचरण करे, न कीति, वाहवाही या प्रतिष्ठा की दृष्टि से धर्माचरण करे, किन्तु वीतरागप्राप्ति [शुद्धात्मभाव मे स्थिरता] के उद्देश्य से धर्माचरण करे।२ निष्कर्ष यह है कि यदि कोई मुमुक्षु साधक वीतरागता-प्राप्ति की दृष्टि से वर्माचरणरूप आजा का पालन करता है, तो वह वीतराग परमात्मा की पूजा ही है और उसका अनन्तर फल वीतराग की आज्ञा का परिपालन और चित्त की प्रसन्नता [निर्मलता है। जबकि परम्परागत फल [अन्न मे] सिद्धि [मुक्ति स्थान की प्राप्ति है। जव साधक परमात्मा [पद्मासनस्थ जिनप्रतिमा के सान्निध्य में पद्मासन से वैठ कर वीतरागपरमात्मा के ज्ञानादि अनन्तचतुष्टय गुणो का ध्यान करता है तो उसके हृदयपटल मे विकारभावो या वैभाविक गुणो का जाल हट कर परमात्मभाव या शुद्धात्मभाव का आन्दोलन होता है। धीरे-धीरे परमात्मभाव सस्कारो मे जम जाता है। यही परमात्मपूजा का फल है । राचमुच ऐसी परमात्मपूजा आज्ञापालन में शुरू हो कर चित्तप्रसन्नता तक पहुँच कर गुभगति और अन्ततोगत्वा मुक्ति तक पहुँचा देती है। शुद्ध का विवेक करने के लिए ही श्रीआनन्दवनजी ने प्रभुपूजा के द्रव्य और भाव दोनो प्रकार के अनन्तर और परम्परागत फल बताये है, फलाकाक्षा करके पूजा करने की दृष्टि में नहीं। १ इच्चेएणं विणयमूलएण धम्मेण अणुपुटवेणं , अट्ठकम्मपयडीओ खवेता लोयग्गपइट्ठाणा भवति ।--ज्ञातासूत्र अ ५ २ न इहलोगट्टयाए आयारमहि द्विज्जा, न परलोगट्ठयाए आयारमाहिटिज्जा न कित्तिवन्नसिलोगट्टयाए आयारमहिट्रिज्जा; नन्नत्य आरहतेहि हेहिं आयारमहिट्ठिज्जा। -दशवकालिक अ ८-६
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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