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________________ परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध मे समाधान ३१७ के विषय मे जिज्ञासा प्रस्तुत करना स्वाभाविक ही है। शान्तिनाथ प्रभु ससार के अकारण, निस्वार्थ व निष्काम वन्धु है, वे शान्तिमत्र के विशेषज्ञ, विश्वशान्ति के पुरस्कर्ता और अनुभवी है, अत. उनके सामने शान्तिविषयक प्रश्न प्रस्तुत करना चाहिए, यह सोच कर ही इस स्तुति मे ये प्रश्न प्रतुत किये गये है। शान्तिनाथ प्रभु यद्यपि वीतराग एव सिद्ध-बुद्ध मुक्त-निराकार होने के कारण किसी जिज्ञासु साधक मे मीधी बातचीत नहीं करते, तथापि जिज्ञासु औरभावुकहृदय आत्मसाधक मुमुक्षु जव शुद्ध अन्त करण से शान्ति से सम्बन्धित किसी प्रश्न पर शान्तिनाथ प्रभु के आदर्श को समक्ष रख कर तथा उनके जीवन के शान्तिप्रदायक मधुर सस्मरणो से प्रेरणा ले कर गहराई से विचार करता है तो उसके शुद्ध और सम्यग्दर्शनयुक्त मानस मे यथार्थ समाधान अंकित हो जाता है, उसका भावविभोर अन्त करण शान्ति के सभी पहलुओ पर समाधान पा जाता है। इसी दृष्टि मे श्रीआनन्दघनजी ने शान्तिनाथ (शान्तिमय वीतराग) प्रभु के समक्ष विनति की है। निश्चयनय की दृष्टि से देखे तो अनन्तशान्तिमय शान्ति के नाथ आत्मदेव के सामने उनके द्वारा प्रस्तुत यह शान्ति-विषयक प्रार्थना है। शान्तिनाथ प्रभु (अयवा शान्तिनाथ आत्मदेव) को 'त्रिभुवनराय' इसलिए कहा गया है कि ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक, और अधोलोक यानी त्रिभुवन के सभी जीव उन्हे अपने कल्याणकर्ता मानते हैं, शक्रस्तव में लोगनाहाण' इत्यादि विशेपण इसी बात को सिद्ध करते हैं। अगली गाथा मे श्रीमानन्दघनजी शुद्ध आत्मलक्षी बन कर शान्तिनाथ भगवान से उपयुक्त प्रश्नो की जिज्ञासा के विषय मे आश्वासन एव धन्यवाद प्रस्तुत कराते है धन्य तु आतम जेहने, एहवो प्रश्न-अवकाशरे। धीरज मन भरी सांभलो, कह शान्ति-प्रतिभास रे ॥ शान्ति॥२॥ अर्थ हे आत्मन ! तू धन्य है, जिसे इस प्रकार के प्रश्न करने का अवकाश मिला, विचार आया । अत अब तुम इन प्रश्नों का उत्तर मन मे धैर्य धारण करकेसुनो । मैं तुम्हे शान्ति का प्रतिभास-स्वरूप-प्रकाश या उपाय कहता हूँ।",
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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