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________________ अध्यात्म-दर्शन प्रथम भूमिका प्राप्त कन्ने का अर्थ होना है-मो-गपुरुष के अनुरप अपने उपादान की शुद्धि । 'देवो भूत्वा देव यजेत्' इन च्याप गे अनुसार तीनराग परमात्मदेव की मेवा के लिए अपनी आत्मा (उपादान) के तमनुन्य होने का पुरपार्थ करना आवश्यक है। यहाँ 'सेवनकारण' शब्द है, उसका जथं 'मेवा के लिए अभिम नगर प्रतीत होता है। यदि 'नवनगाण मद में कारण शब्द को निमितका माना जाय तो भूमिका का अयं करना होगा---'चित्त भूमिका' (अगम्या) अयवा 'चित्तभूमि' (मनोभूनि) । क्योकि मान्नया में चित्त की अमुक भूमिका या अमुा प्रकार की चित्तभूमि ही निमित कारण बन सकती है। परमात्मसेवा को प्रथम भूमिका के स्प मे तीन बातें जरूरी परमात्ममेवा की निष्ठा रखने वाले साधक के लिए प्राथमिक भूमिका के स्स में तीन बाने प्राप्त करनी जस्ती है-'अभय, अद्वैप, अखेद । इन तीन की पहली भूमिका मे अनिवार्यता नलिए बताई कि साधारण व्यक्ति या राजा अथवा धनाढ्य की मेवा के लिए भी व्यवहार में नदनूतन योग्यता और भूमिका प्राप्त करनी पड़ती है, तय लोकोनर बीतगग परमात्मा की सेवा के लिए तो काफी ऊंची आत्मभूमिका अथवा चित्त भूमिका का होना आवश्यक है । परमात्मा की सेवा को बहुत-ने अज्ञलोग बहुत आमान नमलते है अथवा बहुत-से नशेबाज या पूर्त लोग साधु-सन्त के वेप मे कुछ मी त्याग करने की बात अथवा आत्मभावो मे रमण करने की बात को तिलाजलि दे कर मिर्फ नशा क के मूरत लगाने या परमात्मा के कोरे गुणगान, कीर्तन-भजन करने मात्र ने उनकी सेवा होना मानते हैं । परन्तु यह इतना मना मौदा नहीं है। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी इसी स्तुति की अन्तिम गाथा में कहाँ है-"मुग्ध सुगमकरी सेवन आदरे रे, सेवन अगम अनूप" इसी कारण परमात्मदेव की सेवा की पायता के लिए ये तीन वाते सर्वप्रथम आवश्यक बताई है । यदि साधक को परमान्मम्वरूप का १--योगसाधना मे चित्त की पाच भूमिकाएं बताई गई हैं ---क्षिप्त, मूड. . विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध ।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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