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अध्यात्म-दर्शन
मिथ्यात्व, मोहनीयकर्म, अज्ञानान्धकार आदि आपकी आत्मा के प्रवल शमो का भय नष्ट हो गया, अथवा मिथ्यात्व, मोहनीयकर्म, अज्ञानान्धकार और भय ये चारो प्रवल शत्रु भाग गए, आपने अरिहन्तपद को चरितार्थ कर लिया, और जब ये शत्रु रणक्षेत्र छोड कर भाग खड़े हुए तो वीरता के परिणामस्वरूप आपकी जीत का नगाडा बज उठा, लोग आपको रागढ पविजेता कह उठे, सर्वत्र आपकी विजयदुन्दुभि बज उठी, लोग जय-जयकार करने लगे, उसी प्रकार में भी आपके पावन चरणकमलो मे नमस्कार करके उसी आत्मिक वीर्य से परिपूर्ण वीरता की याचना करता हूं। समस्त कर्मों और उनसे उत्पन्न हुए कषायो आदि समस्त विभावो का नाश होता है तव आत्मा पूर्णरूप से खिल उठता है और आत्मा का वीर्य भी सम्पूर्णत खिल उठता है। इस प्रकार की सर्वोच्च विजय होने से जीत का नगाडा वज उठता है। सचमुच एक वीरता की याचना करने से उसके अन्तर्गत उपर्युक्त आत्मिक शत्रुओ का भयनिवारण, कर्मशत्रुओ पर विजय का डका, अरिहन्तपद, साहस, मनोबल, धैर्य, गाम्भीर्य, आदि समस्त अनिवार्य वस्तुएं आ जाती हैं। जैसे एक अधे ने देव से वरदान मांगा था कि मेरी पौत्रवधू को मैं सातवी मजिल पर सोने के घडे मे छाछ विलोते देखू, इस वरदान की याचना मे दीर्घ आयुष्य, अघत्वनिवारण, सात मजला मकान, सोना, पुत्र, पौत्र, पौत्रवधू, गाय मादि बहुत-सी वस्तुएं आ गई , वैसे ही योगीश्री ने महावीरप्रभु से वीरता माग कर उपयुक्त सन अध्यात्मयोग्य वस्तुएं मांग ली हैं।
वीरत्व से यहां तात्पर्य है-आत्मवीर्य से। नामवीरत्व, स्थापनावीरत्व, द्रव्यवीरत्व, को छोड कर यहां भगवान् से भाववीरत्व को प्राप्त करने का लक्ष्य है।
अगली गाथामो मे उसी आत्मवीर्य (आध्यात्मिक वीरता के प्राप्त करने का क्रम बताते हैं
छउमत्थ वीरज (वीर्य) लेश्या-सगे, अभिसंधिज मति अंगेरे। सूक्ष्मस्थूल-त्रिया ने रगे, योगी थयो उमगे रे ॥वीर० ॥२॥
अर्थ छमस्थ (मन्दकषाययुक्त) वीर्य (पण्डितवीर्य) के साथ शुभलेश्या (उत्तम परिणामवाली धर्म-शुक्ललेश्या) के सग (सगति) से अभिसन्धिज (आत्मा