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________________ २४. -এমন मात्ममार्ग को जानने-गमान में पहरी गरीर और भान्मा का गाया, स्यपरभाव, कर्म और आत्मा का नम्बन्ध, वगैत अनेक नाना म न जाने है । इनो लिए वन्न वस चक्षी पर्याप्त नही और लोनर दीपं दृष्टि के लिए गहन अभ्यान जम्नीह, जो जीता मुमान की जमा। यह मेरी पहली कठिनाई। 'चरम शन्द पा जयं 'अन्तिम भी होना है यानी निमri-fifrare नम्पूर्ण जानी वे नेत्र। उनकी अर्थनगति का प्रकार होती --अगरत (पूर्ण) ज्ञानी की दृष्टि में इन नमार मोदन नो नाग मनार विविन अटपटी चक्य नदार गनियो या पगटियो में मूला दृया न जाता है। परमात्ममार्ग के दगंन में दूनगे-तीसरी कठिनाई पन्मात्मपथ के यथाव दर्शन में जिन माप्त नहीं दिव्य विचारनभु (अनीकिा नय) अभी तक मुझे पान नही है। इन ठिनाई को देखते हुए अब मुझे परमात्मपथ के दान के अन्य गावी पर दृष्टिपात कर ना जरूरी है , यह नोच कर भगनी माया न पन्मान्मपथ से दगंन का पिपासु माधक कहना है पुरुष-परम्पर-अनुभव जोवता रे, अधो अंध पलाय । वस्तु विचारे रे जो आगमे करी रे, चरण धरण नहीं ठाय ॥ परडो०॥३॥ अर्थ परमात्ममार्ग से अनभिज्ञ किसी रयातिप्राप्त (प्रनिह) पुरुष के अनुभव अथवा सम्प्रदाय-परम्परा से त्रले याते हुए (मार्ग-विषयक) सदिग्रस्त ज्ञान या पञ्चेन्द्रियो को विषयासक्ति से उत्पन्न पराश्रित बोध को दृष्टि से परमात्ममार्ग को देखने जाएँ तो यहाँ अंघो के दल की तरह एक के पोछे एक अन्धानुसरण ही प्रतीत होता है । निर्दोष आप्तपुरषो के वचनसमूह-रूप आगम को दृष्टि से वस्तुतत्त्व (यथार्थ मार्ग) का विचार करें तो आगमोक्त परमात्ममार्ग और उपर्युक्त पुरुष-परम्परा आदि द्वारा बताये-जाने वाले परमात्ममार्ग मे आकाश-पाताल जितना अन्तर दिखाई देता है, अत आचरण के अन्तर को देखते हुए कहीं पर रखने को जगह नहीं रहती। -
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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