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________________ परमात्मा के आत्मतत्त्व की जिज्ञासा ४४५ है। इसलिए आत्मतत्व के जिनासु को मोह से दूर ही रहना चाहिए । पक्षपात भी मोह का ही एक प्रकार है। पानी मे मुह तभी दिखाई दे सकता है, जब वह शान्त हो, चंचल न हो, गदा न हो, मटमला न हो, स्वच्छ हो, स्थिर हो। इसी प्रकार उसी आत्मारूपी दर्पण पर आत्मस्वरूप का यथार्थ चित्र दिख सकता है, जो स्वच्छ हो , मोह, राग द्वेप आदि से मलिन, चचल या पूर्वाग्रह से रहित हो । यही कारण है कि प्रभु ने अपने उत्तर में सीधी-बात कह दी है--जिसे ययार्थ आत्मतत्त्व का ज्ञान करना हो, उसे किसी भी एकान्तवाद का पक्ष नही लेना चाहिए, साथ ही राग, द्वेष, मोह मादि से रहित हो कर निप्पक्षभाव से आत्मस्वरूपरमण मे जुट जाना जाहिए। शास्त्रो, विकल्पों, पक्षों, मतो आदि से इन्कार प्रश्न होता है कि वीतरागप्रभु पक्षो एव राग-द्वेष-मोह आदि को छोडने का कहते हैं, लेकिन अब तक जिन सस्कारो मे पले-पुसे है. जिस सम्प्रदाय से शिक्षा-दीक्षा पाई है, पहले से जिस मत, पथ आदि को स्वीकार कर रखा है, जो विकल्प अब तक सुन-पमझ रखे हैं, उन्हे कहाँ फैक दे ? उन्हे कैसे दफना दें? उन्हे फैके या दफनाए विना तो शुद्ध आत्मा का ज्ञान नहीं होगा, यह तो भारी धर्मसकट आ पडा है, जगद्गुरो। इसका कोई अनुकूल समाधान दीजिए, जिससे मेरे चित्त मे समाधि हो ।" इसका समाधान भगवान् यो करते हैं-आतमध्यान करे जो कोऊ, सो फिर इण मे नावे । वात यह है कि सम्प्रदाय मत, पथ आदि के पूर्वसस्कार या लगाव वैसे तो छूट नही सकता , कोरी बाते करने से या थोयी डीग हाँकने से ये सब नही छूट सकते । इनके छोडने का सी.मा और सच्चा उपाय यही है कि आत्मा को ध्येय बना कर जो व्यक्ति उसी का ध्यान करता है, उसी मे तल्लीन हो जाता है. वाद्य व्यवहारो के समय निखालिस आत्मस्वरूप का ही चिन्तन करने - लगता है, और यो करते-करते जब उसका अभ्याग इतना प्रवल हो जाता है कि आत्मा के सिवाय दूसरी ओर मन-वचन, काया जाते ही नहीं, तब वह फिर राग, द्वेष, मोह आदि के चक्कर में नहीं आएगा । यह स्वाभाविक है कि जव व्यक्ति निखालिस आत्मा की ओर ध्यान देगा तो अपने-आप ही राग-द्वेषादि की ओर से उसकी वृत्ति विमुख हो जायगी। और राग-द्वेपादि को जब मुंह
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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