SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमात्मा की सेवा और स्वभाव का भेदविज्ञान उसके हृदय मे भलीभांति जग जाता है। ओघदृष्टि खत्म हो कर उसे योगदृष्टि प्राप्त हो जाती है, अपने स्वस्वरूपरूप का उसे जान हो जाता है। अब तक उसका दृष्टिविन्दु समारसम्मुख था, अब वह दिशा बदल कर मोक्षसम्मुख होता जाता है । जव इस प्रकार साधक की दृष्टि सम्यक् हो जाती है , तब अभी तक उसमे रहे हुए दुराग्रह, एकान्त अभिनिवेश आदि दूर होते जाते है, ससार के प्रति उसका राग (मोह या आसक्ति) कम होता जाता है, उसके चित्त मे स्थिरता, शान्ति और नम्रता आती जाती है , उसमे स्वकीय-परकीय भावो का विवेक आ जाता है, उसे अपने हिताहित का बोध हो जाता है, ससार से छुडाने वाला और उसमे भटकाने वाला कौन-कौन है ? इसका पृथक्करण करने की उसमे शक्ति आ जाती है। इसी का नाम भली दृष्टि का खुलना है। 'योगदृष्टिसमुच्चय' मे मित्रा, तारा, वला, दीप्ता, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा नामक जिन ८ दृप्टियो का उल्लेख है, यद्यपि उनमे से पूर्व-पूर्व की ४ दृष्टियाँ आत्मा के सम्मुख क्रमण खुलती हुई दृष्टियाँ है, मगर वे चार दृप्टियाँ तो मिथ्यात्वगुणस्थान की भूमिका मे रहती हैं, जबकि यहाँ मिथ्यात्व की भूमिका पार करके साधक चरमकरण की भूमिका पर आ कर सम्यग्दृष्टि का द्वार खोल देता है । इसलिए "मली दृष्टि' से यहाँ प्रमगानुसार सम्यग्दृष्टि अर्थ ही सगत लगता है। कही-कही 'दृष्टि खुले' का अर्थ मार्गानुसारी की दृष्टि खुल जाती है, किया गया है । परन्तु यह अर्थ भी यहाँ सगत नही जचता । क्योकि मार्गानुसारी की भूमिका सम्यक्त्वप्राप्ति से पहले की भूमिका है , मार्गानुमारी की भूमिका के लिए जो ३५ गुण वताए हैं, वे नैतिक जीवन के हैं। आध्यात्मिक जीवन की भूमिका सम्यग्दर्शन-प्राप्ति के बाद शुरू होती है। यहाँ सम्यक्त्वप्राप्ति के प्रारम्भ की भूमिका मे तो सम्यक् दृष्टि खुलती ही नही है । मार्गानुमारी की दृष्टि तो उक्त साधक की बहुत पहले ही खुल चुकी होती है । अत 'दृष्टि खुले भली' से सम्यग्दृष्टि का खुलना ही सिद्धान्त-सम्मत अर्थ है । छठी उपलब्धि : प्रवचनवाणी को प्राप्ति ऐसे सम्यग्दृष्टिसम्पन्न साधक को अनायास ही प्रवचनवाणी की प्राप्ति ।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy