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________________ ध्येय के साथ ध्याता और ध्यान की एकता ४६१ - हाल होगा ? अत हे सज्जन | रथ (सासारिक भाव-मनोरयरूपीरथ) वापिस मोडो । मेरे अनेकविध मनोरथो के साथ तुम वापिस आओ, और मेरे घर मे, आ कर मेरी सुध लो। नारी का प्रेम क्षणिक मान कर उपेक्षणीय नही है, टसी बात को अगली गाथा मे राजीमती कहती है नारी-पखो श्यो नेहलो रे, साच कहे जगनाथ; मन० ॥ ईश्वर अर्धागे धरी रे तुमुझ झाले न साथ, मन० ।। ३ ।। अर्थ नारीपक्ष का इकतरफी प्रेम (स्नेह) कौन सा प्रेम है ? "हे जगन्नाथ ! अगर आप सचमुच ऐसा कहते हैं तो मुझे सत्य कहना पडेगा कि महादेव जैसे ईश्वर कहलाने वाले बडे देव ने पार्वती को अपने आधे अगों मे धारण की थी, इसलिए वे अधनारीश्वर कहलाए । लेकिन तुम तो मेरा हाथ भी नहीं पकडते, वागगन दे कर भी अब पिंड छुडाते हो? भाष्य नारी के प्रति स्नेह का मूल्य इस गाथा मे राजीमती दूसरा मुद्दा उठाती है । वह कहती है-यदि आप यह कहते हैं कि स्त्रीपक्ष के क्षणिक स्नेह की क्या कीमत है ? "अत स्त्री के साथ प्रेम क्यो किया जाय ? इस प्रश्न मे एक बात और गभित है कि गजीमती यह भी कहना चाहती है कि कदाचित कोई स्त्री अपने पति के साथ स्नेह न करती हो, तब तो उस पति के लिए उचित है कि वह ऐसा प्रश्न उठाए । और ऐसे पति ने कदानित अपनी स्त्री के साय मम्बन्ध विच्छेद किया हो, तव भी ठीक है, लेकिन मेरे और आपके बीच तो ऐी कोई बात नहीं हुई स्वामिन । यदि सच कहूं तो आप मेरे एक जन्म से नही आठ-आठ जन्मो से परिचित नाथ हैं । मेरा तो इस जन्म मे भी आपके प्रति स्नेह अत्यन्त अधिक है। पर वह स्नेह एकपक्षीय है, पत्ती के मन मे स्नेह हो, और पति के मन मे स्नेह जरा भी न हो, तो वह स्नेह कैपे निम मरुना है ? अन मेरे स्नेह के बदले मे आपको भी स्नेह करना चाहिए। आपको भी स्नेह का जवाब म्नेह मे देना चाहिए । जब पति के प्रति पत्नी का प्रेम हो तो पति भी पत्नी के प्रति अवश्य प्रेम करता है,
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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