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________________ ४६२ अध्यात्म-दर्शन और उसके मनोरथ पूर्ण करता है। अन्यथा एकपक्षी-नारीपक्षीय स्नेह कैसे निभेगा? परन्तु प्राणेश्वर | क्या आप भूल गये है- पार्वता के स्नेहवश शकर ने उसे अपने अधीग मे स्थान दे दिया था। आज भी जगत् उन्हे अर्धनारीश्वरके नाम से पहिचानता है। अत आप तो मेरा हाथ भी नही पकडते, मुझे अर्धागिनी बनाने की बात ही दूर रही । आपको जाना हो तो भले ही जाय पर एक बार मेरा हाथ पकड कर मेरे साथ पाणिग्रहण करके मुझे अपनी अर्धागिनी बना कर फिर जाय । मेरा हाथ छिटका कर न जाएं। मेरे नाथ नही बनते तो आर जगन्नाथ को कहलाएंगे ? मेरी इतनी-मी प्रार्थना नहीं मानेंगे तो क्या लोगो मे आप अच्छे कहलाएंगे? अध्यात्महष्टि से किसके साथ स्नेह ? इस गाथा के आध्यात्मिक दृष्टिपरक अर्थ पर विचार करते हैं तो ऐसा मालूम होता है कि वहिर्मुखी चित्तवृति (मजानचेतना) स्थितप्रज्ञ वीतराग आत्मा मे कहती है --'मेरे प्रति प्रेम का हाथ बढाओ, मुझे छिटकाओ मत, मेरे साय सम्बन्ध विच्छेद न करो, परन्तु स्थितप्रन उसके बहकावे मे नहीं आता, वह शुद्ध आत्मा मे स्थिर रहता है, स्त्री का स्पर्श तो मुनि करता ही नही है, वहिर्मुवी चित्तवृत्तिरूरी नारी का भी स्पर्श नहीं करता। शकर-पार्वती के दाम्पत्यप्रेम को आध्यात्मिक शुद्ध आत्मप्रेम नही कहा जा सकता। ऐमा वेदोदयजनित रागवर्द्धक प्रेम वीतरागप्रभु मे कैसे हो सकता है ? साधक के लिए सचमुच श्रीनेमिनाथ का यह आदर्श प्रेरणादायक है । राजीमती तो अपने स्वार्थ के कारण उपालम्भ देती है, साधक को वहिर्मुखी चित्तवृत्तियो के के द्वारा दिये जाते हुए प्रलोभन, उपालम्भ आदि को छोड कर आदर्श जीवन जीना हो तो नेमिनाथप्रभु का आदर्श ग्रहण करना चाहिए। फिर उपालम्भ का दौर चलता हैपशुजननी करुणा करी रे, आरपी हृदय विचार ; मन० । माणसनी करुणा नहीं रे, ए कुरण घर आचार ? मन० ॥४॥ प्रेम कल्पतरु छेदियो रे, धरियो योग धत्त र; मन० । चतुराईरो कुरण कहो रे, गुरु मिलियो जगशूर, मन० ॥ ५॥ मारूं तो एमां कई नहीं रे, आप विचारो राज, मन० । राजसभा मां बेसतां रे, किसड़ी वधशी लाज ? मन० ॥६॥
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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