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________________ परमात्मा से पूर्णवीरता की प्रार्थना ५४१ ___ हो, वह योगी तो हो सकता है, मगर अ-योगी कैसे ? इस विरोध का समाधान यह है कि यहां अ-योगी का अर्थ अध्यात्मयोग से रहित नहीं, अपितु मन-वचनकाया के योग से रहित है । दूसरा प्रश्न है-अयोगी होने से पहले योगी था, वह भोगी कैसे हो सकता है ? इस विरोधाभास का समाधान यह है कि यहां योगी अध्यात्म-योगसम्पन्न के अर्थ मे नहीं, अपितु मन-वचन-काया की प्रवृत्ति से युक्त होने के कारण है। इस प्रकार का योगी होने से कर्म वाध कर-सासारिक भाव प्राप्त करने से आत्मा को अपने किये हुए समस्त कर्म भोगने पडते हैं। इस कारण उसे भोक्ता=भोगी कहते हैं, अथवा यहाँ आत्मभाव मे रमण करने वाला होने से साधक को आत्म-भोगी कहा गया है। क्या सव वीर्य एक समान नहीं हैं ? पहले भी हम कह आए है कि शरीरज धातुनिष्पन्न वीर्य और आत्म वीर्य दोनो मे रात-दिन का अन्तर है। फिर भी कई लोगो की शका यह है कि मशीनो आदि मे या कई वस्तुओ मे बहुत शक्ति होती है, उसे क्या कहेगे ? यह स्पष्ट है कि यह आत्मा का वीर्य तो है नहीं ? पौद्गलिक वीर्य है। अमुकअमक वस्तुओ के सयोग से अमक प्रकार की शक्ति यन्त्र आदि मे पैदा हो जाती है, पर यह सव सयोगज है और परप्रेरित है। वे पदार्थ चेतन की तरह स्वतः उस वीर्य को प्रगट नहीं कर सकते। दूसरा कोई चेतन उनको परस्पर जोडता है, या सयोग करता है, तब जा कर उनमे विद्युत् आदि की शक्ति पैदा होती है। दूसरी शका यह है कि शरीरान्त हो जाने के बाद एक गति से दुसरी गति मे, एक योनि से दूसरी योनि मे जीव को कौन ले जाता है, क्योकि शरीर और शरीर से सम्बन्धित शक्ति तो शरीर के खत्म होते ही खत्म हो जाती है । आत्मा को शक्ति निखालिस तो है नही, तब कौन-सी शक्ति है ? वह आत्मा की ही विकृत शक्ति है। इसका समाधान करने के लिए हम वीर्य के तीन प्रकार अकित कर रहे हैं, ताकि इन सब शकाओ का यथार्थ समाधान हो जाय। १ शारीरिकवीर्य-मथुनसुख (वर्षायकसुख) भोगने मे जो उपयोगी है, और जो सप्तम-धातु (शुक्र) रूप माना जाता है, जिसके कारण प्राणी कामवासना से उत्तेजित हो कर मैथुनसुख भोगता है, भोगी बनता है।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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