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परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा १८१ द्रव्यपूजा की दृष्टि से द्रव्यन शुचिभाव का अर्थ है-१शरीर और शरीर के अगोपाग स्वच्छ करके परमात्मपूजा के योग्य बिना मैले शुद्ध साफ वस्त्र पहिन कर तथा परमात्मपूजा के योग्य जो शुद्ध द्रव्य है, उन्हे भी शुद्वरूप मे लेना । मतनव यह है कि ऐसे द्रव्य न लिए जाय, जो वीतरागप्रभु की पूजा के योग्य न हो । जैसे शराव, मास आदि घिनौने द्रव्य या वलि चढाने के लिए कोई पगु या पक्षी आदि जीव ले कर जाय । अथवा वीतराग एव त्यागी महापुरुषो की पूजा के लिए भोग-विलास की सामग्री ले कर कोई जाय तो वास्तव में वीतरागपूजा के लिए ये चीजें उचित द्रव्य नहीं हैं । जो भी द्रव्य ले कर जाय, वह भी ठीक तरह से उचितरूप मे ले कर जाय। जैसे कई लोग पजा की सामग्री इधर-उधर बिखरते हुए, या बारबार जमीन पर या गदे स्थान पर गिराते हुए अथवा कपडे आदि अस्तव्यस्तरूप मे पहन कर या गरीर मे शौचक्रिया (मलमूत्र आदि की क्रिया) की हाजत रख कर जाते है या शराव आदि नशीली चीजें पी कर अथवा मासादि अभक्ष्य वस्तुएँ खा कर अथवा किसी व्यक्ति से लडझगड कर किसी की हत्या, मारपीट आदि करके, किसी पर अत्याचार-अन्याय करके, प्रभु-पूजा के लिए खून से रगे हायो, अथवा गदे शरीर को ले कर जाना भी द्रव्यत अणुचिभाव है। इसी तरह वीतराग-परमात्मा की द्रव्यपूजा करने के लिए वाह्य आडवर रचना. या लोकदिखावा करना, जोर-जोर से चिल्ला कर दूसरे व्यक्तियो द्वारा की जाने वाली पूजा में खलल डालना, आदि सव द्रव्यत अणुचिभाव है । क्योकि परमात्मपूजा दिखावे या प्रदर्शन की चीज नहीं है । वह तो आत्मगुणविकास या स्वस्वरूप मे स्थिर रहने के लिए होती है । इसी तरह द्रव्यपूजा की दृष्टि में भावत शुचिभाव का अर्थ है--चित्त में किसी प्रकार का कालुप्यभाव, किसी के साथ वैरविरोध, होड (प्रतियोगिता), सघर्प, अथवा जयपराजय का भाव ले कर परमात्मपूजा के लिए नही पहुँचना , अथवा पुत्र, धन, यश, प्रतिष्ठा, पद, मुकद्दमे मे जीत, प्रसिद्धि आदि किमी सामारिक कामना से
१ पहाए सुद्धपावेसाइ वत्थाइ पवर-परिहिए -उपासकदशाग सूत्र
म. महावीर के पास आनन्द श्रमणोपासक के जाने के समय का वर्णन । आनन्द श्रमणोपासक ने म्नान किया, शुद्ध और गभा मे प्रवेग के योग्य वरनो को ठीक रूप में पहने।