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परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यप्जा
एहनु फल दोय भेद सुणी जे, अनन्तर ने परस्पर रे । आणापालन, चित्तप्रसन्नी, मुगति सुगति सुरमन्दिर रे ।
सुविधि० ॥४॥
अर्थ इसके दो फल सुनने मे आते हैं, एक अनन्तर [तात्कालिक सीधा Direct] फल और दूसरा पारस्परिक फल । अनन्तर फल तो वीतराग परमात्मा का सालम्बन ध्यान [ साकार उपासना ] करके क्रमश परमात्मभाव प्राप्त करने रूप परमात्मा की आज्ञा का पालन और परमात्मा की प्रतिमा को देख कर चित्त की प्रसन्नता=शुद्धात्मभाव मे चित्त की स्थिरता, है । इसका परम्पराफल हे-मनुष्यभवरूप सद्गति अथवा देवलोक की प्राप्ति और अन्त मे मुक्ति की प्राप्ति ,
भाष्य
परमात्मपूजा का फल वीतराग-परमात्मा की उपासना किसी लौकिक फलाकाक्षा से करना उचित नहीं। उनकी सेवा, पूजा, भक्ति और उपासना अपनी आत्मा को जगाने, अपनी आत्मा को अपने अनुजीवी गुणो की ओर मोड़ने और वासना, कामना, प्रसिद्धि, आसक्ति, ममता आदि बुराइयो से दूर रखने के लिए, सत्असत् का विवेक करने और स्वस्वरूप मे निष्ठा बढाने के लिए है। इसी दृष्टि से श्रीआनन्दघनजी पूर्वोक्त परमात्मपूजा के दोनो प्रकार के फल बताते हैअनन्नरफल और पारम्परिक फल । अनन्तरफल तो तात्कालिक कहलाता है, जो कार्य सम्पन्न होते ही व्यक्ति को मिलता है, जबकि परम्परागत फल दूरगामी होता है, वह कई वार तो इमी एक जन्म में ही मिल जाता है, कई वार भवान्तर (दूसरे-तीसरे आदि जन्म) मे मिलता है । । यह तो निश्चित है कि किसी भी क्रिया का फल तो अवश्य मिलता है । माथ ही यह भी निश्चित है कि प्रत्येक क्रिया का फल कर्ता के भावो पर आश्रित है। एक समान क्रिया होने पर भी कर्ता के भाव अशुभ हो तो उसका फल भी अगुभ मिलेगा, और शुभ होंगे तो शुभ मिलेगा। तथा यदि
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१. 'या या क्रिया सा सा फलवती।