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परमात्मभक्त का अभिन्नप्रीतिरूप धर्म २६९ अपने अभिन्नप्रीतिरूप धर्म को जरा भी आँच नहीं आने देता, भले ही उसके लिए उसे सर्वस्व होमना पडे । पतिव्रता स्त्री उमग मे आ कर पति के गुणगान अन्तर से करती है, वह किसी के द्वारा गुणगान के लिए मजबूर नहीं की जाती और न ही किसी प्रकार का प्रलोभन दे कर उसे गुणगान के लिए तैयार किया जाता है, उसी प्रकार प्रभुप्रीतिरूपी धर्म का पालक भक्त भी किसी के दवाब, भय, या प्रलोभन मे न आकर स्वत प्रेरणा से उमग मे आ कर प्रभु के गुणगान करता है। जिस प्रकार पतिव्रतास्त्री अपने पति के सिवाय दूसरे किसी पुरुप को (दाम्पत्यप्रेम की दृष्टि से) स्वप्न मे भी मन मे नही लाती, यही उसकी कुलीनता की रीति है, इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि ज्ञानचेतनावान भव्यात्मा की भी श्रद्धा दृढ ऐसी हो जाती है कि धर्मनाथ सिद्धप्रभु वी और मेरी आत्मा मे तुल्यता है, इसी कारण से प्रभु के साथ मेरी प्रीति जुडी है, उसमे शुद्ध देव के सिवाय दूसरे किसी रागी और द्वेपी देव को मनमन्दिर मे जरा भी नही लाना । जैसे पतिव्रतास्त्री को हरदम खटका रहता है कि कही मेरी और पति की अभित्रप्रीति में कोई भग न पड जाय, कोई विघ्न न डाल दे , वैसे ही सम्यग्दृष्टि साधक मे के मन भी यह खटका रहता है कि मेरे और परमात्मा की जुडी हुई प्रीति मे वीच मे कोई भग न डाल दे। इसलिए मस्त योगी श्रीआनन्दघनजी अन्तर से पुकार उठते हैं-'भग म पड़शो हो प्रीत, जिनेश्वर ।
स्वरूपसिद्धि मे विघ्नरूप है-अन्त करण मे अन्य रागी, द्वेषी सस्त्रीक देव का ध्यान और बहिर्मुखी बनाने वाले अनात्मतत्त्वो पर राग। परन्तु जब साधक इन दोनो का परित्याग कर देता है, तब साधक कहता है-'मेरा आत्मभाव
और परमात्मा का स्वभाव एक है, पृथक् नही है, इसलिए उनका और मेरा कुल एक ही है। जिम मार्ग से प्रभु को मुक्ति या सिद्धि मिली है, उसी मार्ग से मैं भी चलूं और प्रभु के साथ अखण्ड प्रीति के लिए उनका सान्निध्य प्राप्त करू । प्रभु की तरह मुझे भी मोक्ष प्राप्त करना है, इसलिए कर्मों पर विजय पा कर मुक्त या मिद्ध प्रभु का गुणगान करू ।"
'ए अम कुलवटरीत' कह कर तो साधक के द्वारा अनन्य-समर्पण का भाव अभिव्यक्त किया गया है ।
श्रीआनन्दघनजी ने भक्ति मे मन को एकाग्र करने के लिए