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अध्यात्म-दन
विशिष्ट गुणो आदि के चिन्तन में मनाने , वानी में नहीं नहीं के का में काग्रता न गाधने में एबमारीर की पर्म नष्टाला यो न गेनोगमारमपूजा प्रायः नाटकीय रूप ले लेती हैं। पनी मानसिक वागतारहित वन न्यपूजा पूजा के अटाटे विधिविधानो या नियाकाणो मे ही अनार र जाती है। पूजक का ध्यान उग ममा प्राय पियाकाण्डको जगे नंगे पग परने की ओर ही रह जाता है।
इसलिए श्रीआनन्दधनजी परमात्मपूजा में गम्बन्ध में अनेक गतरों गे मावधान करने और इतनी बारीकी ने द्रव्यपूजार्थी का मुख गावपूजा की ओर मोडने के बाद जगली गाथाओ मे वन्यपूजा की प्रनलित परम्पराओं का उल्लेख करते है--
"कुसुम, अक्षत, वरवास-सुगन्धी, धूप, दीप मनसाखी रे। अंगपूजा पण भेद सुणी इम, गुरुमुख आगम भाखो रे ॥
सुविधि ॥३॥
अर्थ पुप्प, अक्षत (अखण्डित चावल के दाने , उत्तम सुवास वाले सुगन्धित द्रव्य, धूप, दीपक, यो इन पाच द्रव्यो से मन की मानीपूर्वक या मन के भावों के साथ वीतराग-परमात्मा की प्रतिमा की अगम्पर्शी पूजा के पाच प्रकार हैं। ऐतो पंचप्रकारी पूजा मैने अपनी परम्परा के आदरणीय गुरुमो के मुखाविद से सुनी है तथा मागम (अर्थागम) मे कही है।
भाप्य
परमात्मा को पचप्रकारो द्रव्यत अंगपूजा यद्यपि पूर्वाक्त गाथाओ के अनुसार द्रव्यपूजा भी भावो को उद्बुद्ध करने के लिए है, इसलिए अन्ततोगत्वा वह वर्तमान नैगमनय की दृष्टि में भावपूजा मे ही परिनिष्ठिन होती है, फिर भी उस युग में भक्तिमार्गीय गासामो मे प्रचलित परम्पगओ के अनुमार श्रीआनन्दघनजी ने द्रव्यपूजा का उन्लेख इम गाथा में किया है।
द्रव्यपूजा की दृष्टि मे वीतराग-प्रतिमा की अगपूजा के पांच प्रकार है