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परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा फूल, अक्षत (अखण्डित चावल) श्रेष्ठ, सुगन्धित पदार्थ, धूप और दीप । परन्तु इस अगपूजा के पात्रो प्रकारो के साथ श्रीआनन्दघनजी ने 'मन-साखी रे'२ पद जोड़ा है। इसका मतलब यह है कि वीतराग-प्रतिमा मे वीतराग-प्रभु का आरोपण करके उसके आगे फूल चढाते समय मन मे विचार करना चाहिए कि मैं फूल की तरह कोमल और जीवन मे सुगन्ध भर कर प्रभु के चरणों में अपने को न्योछावर करूंगा। अक्षनो की तरह बुराइयो, वामनाओ एव व्यसनो के सामने क्षत ध्वस्त = पराजित नहीं होऊगा । मै उनमे दबूगा नहीं। श्रेष्ठ सुगन्धित पदार्थों की तरह जीवन को सच्चारित्र मे सौरभमय बनाऊगा, धूप की तरह अपने आसपास के वातावरण को अपने बुरे विचारो से गदा न बना कर अच्छे .. विचारो, सम्यग-दर्शन के प्रचार से मुगन्धित वनाऊगा,और दीपक की तरह अपनी आत्मा को ज्ञानज्योति से आलोकित करूगा । हे भगवन् | मैं अपने इन पाँचो अगो द्वारा आपकी परग शुद्ध, बुद्ध, मुक्त श्रेष्ठ, आ मा की पूजा करके अपनी आत्मा को राग-द्वेप, काम-क्रोध ममत्व, आदि बुराइयो या तज्जनित कर्मो से मुक्त, निष्कलक, अखण्डशुद्धतायुक्त, स्वरुपरमणरूप सच्चारित्र से सुगन्धित, सम्यग्दर्शन की निष्ठा से सुवासित और सम्यग्ज्ञान से प्रकाशित कर रहा हूँ।
श्रीआनन्दघनजी इस पचप्रकारी अगपूजा के सम्बन्ध मे स्वमतप्रतिपादन मे तटस्थ रहे है । यही कारण है कि वे अपने अन्तर की वान स्पष्ट कह देते है-'अगपूजा पण भेद सुणी इम, गुरुमुख, आगम-भाखी रे' अर्थात् मैंने ऐसी पचप्रकारी अगपूजा अपनी परम्परा के महान गुरुओ के मुख से और चैत्यवन्दन भाप्य, प्रवचन सारोद्धार आदि अर्थागमो मे कही हुई सुनी है।
१ यद्यपि जिनेन्द्रभगवान् सचित्त पुष्प के त्यागी होते हैं, द्रव्यपूजा के समय
कुछ मूर्तिपूजक सम्प्रदाय को उन्हे सचित्त पुष्प चढाना असगत-सा लगता है, तथा सचित्तपुष्प की हिंसा होने की तर्क भी दी जाती है, परन्तु लाभालाभ की दृप्टि से सोच कर शुभभावो का पलडा भारी होने मे तथा गृहस्थ सचित्त पुप्पो का त्यागी नही होता, इस कारण से थोटे से सचित्तपुप्पो की हिंसा की क्रिया मे प्रथक मानी जाने से मूर्तिपूजकपरम्परा के कुछ आचार्यों ने द्रव्यपूजा के लिए इमे तथा धूप-दीप आदि को क्षम्य माना है। इसी दृष्टि से सावद्यत्यागी श्रीआनन्दधनजी ने पचप्रकारी अगपूजा के साथ मन के भावो का तार पूर्वोक्त पाचो द्रव्यो मे पूजन के समय जोडना आवश्यका बताया है।
--भाष्यकार