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विनय (भले ही वह महान हा) प्रति गग और मोह करके उमनी वायमेवा-म्यूलसेवा (अपनी आन्ना को गगडेप मोह या परभाव में नहटा Fr) कग्न लग जाजोग तो मामा-माया के वास्तविक नाम गेनिन हो जाओगे। परमात्ममेवा का वायविक और गरम नाम कमायो, गग-द्वेष मोह मार्गो में मुकि है । मुक्ति प्राप्न होन की अवधि तक बीच में परमागवानी गाना के वीगन उनी निलमि जो नो यथार्य (कार्यक्षा से सम्बन्धित) गाभव है उनका उल्लेख आगे की मायाम म्पय गरनविना मानगोने. नम) मेवा काग्ने म म मुक्ति के बदले कमवन्धन ही अधिक गम्भव है।
माय ही यह विचारणीय है कि यहाँ मम्भवदेव (परमान्मदेव नाही नेवा करने का कहा है । वानी आत्ममाघरु का जादर्श सेव्य पुरुप परमानदेव हैं। परमात्मदेव को मामूली या न्यूनाधिक गुणा गदेवत्व प्राप्त नही हाना । ऐमें देवत्व की प्राप्ति के लिए अनन्न गुणो की परिपूर्णता होनी आव. श्यक है । परिपूर्णता के मिलर पर पहुंचे हुए आन्ना को ही परमानमदेव कहा जा सकता है । वही साधक द्वारा मेवा के योग्य आदगं हो सकता है । यही का है कि किमी किमी प्रति में 'मम्भवदेवत' पाठ मिलता है, उनका अर्थ मम्भव (परमात्म) देव की मंवा के बदले परमात्मा ये देवत्व को मेवा होता है, निश्चयनय की दृष्टि में यह अर्थ अधिक मगत प्रतीत होता है।
तात्पर्य यह है कि वीतगग परमात्मदेव जनी किमी प्रातर को मेवा नहीं चाहते, वर्तमान मे वे स्वय प्रत्यक्ष नहीं हैं, इसलिए उनके शरीर मे मम्बन्धित वस्तुओ की सेवा करना भी सम्भव नहीं है , और परोक्ष होने के कारण उनकी आत्मा को हमारी मेवा की अपेक्षा नहीं है। बल्कि वे अपनी आत्मा को परमात्मदेव बनाने के लिए किसी की सेवा या सहयोग की अपना रमे विना स्वयं के शुद्धात्मभावरमण में पुरुपार्य करते हैं। वे प्रत्यक्ष हो या परोक्ष हमारे द्वारा उनके गुणगान या स्तुति करने मे उनको कोई भी लाभ नहीं है। वीतराग होने के कारण हमारे द्वारा सेवा करने या न करने से वे कोई खुश या नाराज नहीं होते, न वरदान या श्राप देते हैं। अत निश्चय हप्टि मे परमात्मसेवा का रहस्य है--शुद्ध आत्मसेवा। वीतराग-परमात्मदेव को आदर्श मान कर अपनी आत्मा को राग, द्वेप, कषाय आदि परभावो से हटा कर गुद्ध स्वभाव में लगाना, अपनी आत्मा को परमात्मा की तरह आत्मगुणों