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________________ मध्यात्म-दर्शन चूरिण, भाष्य, सूत्र, नियुक्ति, वृत्ति परम्पर-अनुभव रे। समय पुरुषना अंग कह्या ए, जे छेदे ते दुभंव रे ।। षड् ॥ ८॥ अर्थ पूणि, भाष्य, सूत्र,नियुक्ति,वृक्ति और परम्परा का अनुमत्र; इन सबको समयपुरुष के अग कहे हैं । जो इनका उच्छेद करता है ( इन्हें नहीं मानता ) वह दुर्भव यानी दूरभव्य ( बहुत लम्बे काल वाद मोसगमन के योग्य ) है। भाष्य समयपुरुष के जह अंगो को आराधना जैनदर्शन को वीतरागपरमात्मा का उतमाग कहा है। उत्तमाग मे ही विविध विचारधाराएँ , तत्वज्ञान या दृष्टियां भरी पडी हैं, परन्तु उन विवारधाराओ के परिपक्व बनाने और गहराई मे चिन्तन करके उनका विकाम कर सके, परम्पर सामञ्जस्य व समन्वय विठा सके, इसके लिए जैनदर्शनरूपी उत्तमाग के विविध अवयवरूप इन छह अगो की यथायोग्य आराधना करनी चाहिए। प्रश्न होता है-इन ६ अगो की आराधना करने का क्या उद्देश्य है ? इन ६ अगो की आराधना कसे और किस तरीके से करनी चाहिए? वास्तव मे ये छह अग ज्ञान प्राप्त करने के महत्वपूर्ण अग हैं। मूलसूत्र न होते तो परापूर्व से । तीर्थकरो से ले कर गणधरो, और कुछ प्रभावक आचार्यों का ज्ञान कहां से प्राप्त होता? इसी तरह मूलसूत्रो पर व्याख्या, टीका, नियुक्ति, चूणि और गुरुपरम्परा से प्राप्त अनुभवो की रचना न होती तो इतने आध्यात्मिक ज्ञान का विकास कैसे होता? इसलिए सूत्र से ले कर परम्परानुभव तक का जो ज्ञानवैभव है, बोध की अपूर्व सामग्री है,उमको ठुकराना, उसका अनादर करना, उसके लाभ से वचित रखना कहां की बुद्धिपानी है ? जो व्यक्ति ज्ञान के इन उत्तम निमित्तो की उपेक्षा कर देता है या इनका खण्डन व अमलाप करता है, वह इस जन्म मे तो उस अमूल्य निधि से वचित रहता ही है, अगले अनेक जन्मो मे भी उसे वैसी अभूत पूर्व ज्ञाननिधि नही मिलती । इमोलिए श्रीआनन्दघनजी कहते हैं-जे छेदे ते दुर्भदे' । अर्थात् जो समय पुरुष के इन अगो को काटता है ( इनका छेदन करता है ।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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