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वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक
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भाष्य
। वीतराग बनने का नुस्खा · वीतराग आराधना ' पूर्व गाथाओ मे जिनवर के चरणोपासक बनने के लिए वैचारिक दृष्टि मे विचार-सहिष्णुता, समता, निष् क्षता, उदारता आदि गुणो को ले कर षड्दर्शन को जिनाग मानने की शर्त थी, परन्तु चरण-उपासक बनने का सुफल क्या है ? इसके उत्तर मे श्री आनन्दधनजी कहते हैं जिनस्वरूप यई जिन आराधे, ते सही जिनवरहोवे रे । अर्थात जिनेश्वर भगवान जैसे बन कर (रागपादि वृत्ति निवारण करके) जो साधक आज्ञापालनसहित मन-वचन काया से निर्वद्य भक्तिपूर्वक तन्मय हो कर आराधना करते हैं, वे अवश्य ही जिन- वीतराग) बन जाता है। . इसके लिए वे लौकिक दृष्टान्त दे कर समझाते हैं-शरद ऋतु मे भौंरी को जव मद चढता है, तब वह मिट्टी का घरोदा बनाती है, फिर हरे घास मे से भारी ईलिका (लट) को ला कर उसे डक मार कर के मिट्टी घरौदे मे डाल देती है, फिर उस घरौंदे के आसपास गंजारव करती है । ईलिका डक की पीडा और भ्रमरी का गुंजाख याद करती-करती प्राण त्याग देती है। और कहते हैं, मोहसज्ञावश वह उसी कलेवर द्वारा भ्रमरीरूप बन जाती है । कम से कम १७ वें दिन बाहर निकालती है-हवह भौरी बन कर यह सब एकाग्रतापूर्वक ध्यान करने का परिणाम है । ज्ञानी पुरुष इसे 'कीटभ्रमरन्याय' कहते हैं । । शास्त्र में बताया गया है-कीटोऽपि भ्रमरी ध्यामन् लभते तादृण वपु' । बस यही न्याय जहाँ जिन-भको के लिए है। यो यच्छद्ध स एव स ।' जिसकी जैसी श्रद्धा, भावना होती है, वह वैमा ही बन जाता है । मु मृक्ष को सर्वप्रथम यह निश्चय होना चाहिए कि मेरी आत्मा सिद्धस्वरूप है, दोनो के बीच केवल रागद्वेषादि के कारण ही मेरी भगवान मे दूरी बढती जा रही है । अब मुझे अपना मूलस्वरूप प्राप्त करना है । यो निश्चय करके स्वात्मा मे जिनेश्रवदेव की प्रतिष्ठा करके उसे ध्येयरूप मे सामने रख कर-स्वात्मा को भी जि श्वररूप मे देखने लमता है, जिनदेव मे एकाग्रता करता है, धर्म-शुक्लध्यान द्वारा एक * ध्यान से स्थिरचित्त हो कर जिन-जिन' यो रटन करता है, वह आत्मा अन्त मे'
राग-द्वेप कपाय-मोह से मुक्त हो कर अवश्य ही वीतराग परमात्मा बन जाता - है । तात्पर्य यह है कि निर्विकारो जिनदेव का दत्तचित्त हो कर ध्यान करने से साधक जन्ममरण तथा उससे सम्बन्धित असख्य दुखो का निवारण करके स्वय जिन हो जाता है , .