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अध्यात्मादर्शन
जैनदर्शन ने अपनी एकदेशीयता मिटा कर सर्वदेशीता स्वीकारी है, जबकि अन्य दर्शनो मे से किमी ने भी इस प्रकार की सर्वदेशीयता स्वीकृत नहीं की। नदियां जमे अनेक गड्ढों, टीलो और घाटियो को पार करती हुई समुद्र में मिलती हैं, वे गड्ढे, टीले और घाटियां विविध क्रियाए. हैं विविधपरम्पराएं हैं । उन्हें छोड देने पर ही नदियां समुद्र मे मिल सकती है, इसी प्रकार अन्य दृष्टियों या विचारधाराएं भी ऊपरी आवरणो, परम्पराओ, क्रियाओ आदि को त्याग करके ही जनदर्शनरूपी समुद्र मे नत्त्वदृष्टि से समाविष्ट होती हैं । जैन दर्शन इतना विशाल और व्यापक है।
श्रीआनन्दघनजी इस गाथा के बहाने से सूचित कर देते हैं कि जनदर्शन को इतना विशाल, व्यापक तथा सर्वदर्शनशिरोमणि वताने का यह मतलब नहीं है कि किसी भी अन्य मत, दर्शन की मान्यता का द्वेषभाव से खण्डन या तिरस्कार करें, उसे हीन बता कर निन्दा करें। ऐसा करना वीतरागता और समता के मार्ग से विरुद्ध होगा और कोरा दिखावा होगा-समता का, अनेकान्तवाद का । हां, किसी दर्शन का कोई अंश प्रतिकून हो, तो उसके प्रति माध्यस्थ्यभाव रखना चाहिए । अत जैनदर्शन को भी यथार्थरूम मे समझ कर आत्मीयभाव से यथार्थरूप से उसकी आराधना करनी चाहिए। जिनस्वरूप यई जिना आराधे, ते सही जिनवर होवे रे। भृ गी ईलिकाने चटकावे, ते भृगी जग जोवे रे ।। षड्० ॥७॥
अर्थ जो इस प्रकार राग पविजेता वीतरागपरमात्मा के तुल्य हो कर (यानीरागद्वेष को उपशान्त करके जिनसमान हो कर। जिनभाव की आराधना करता है, वह महान् आत्मा अवश्य (निश्चित) ही वीतरागदेव बन जाता है । जैसे भौरी ईलिका (लट) नामक कोड़े के डंक मारती है, उसके सामने गुंजारव करती है तो वह ईलिका कुछ ही दिनो मे भ्रमरी के रूप मे जगत् के लोग देखते हैं, अनुभव करते हैं:
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उदधाविव सर्वसिन्धव समुदीर्णास्त्वयि सर्वदृष्टय.) । न च तास भशनुवीक्ष्यते, प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधि ॥ ,
सिद्धसेन दिवाकर चौथी द्वात्रिशिका