________________
परमात्मपथ का दर्शन
२७
को यथार्थ मान कर अपने माने हुए अर्य को ही चाहे वह यथार्थ न हो, यथार्थ स्प मे चलाते रहते है। द्रव्यानुयोग, धर्मकथानुयोग (चरितानुयोग), चरणानुयोग
और गणितानुयोग इन चार भागो मे आगमो मे तन्वज्ञान के अतिरिक्त चारित्र, दिया, सम्यक्त्व का म्वरूप, साधुश्रावक के चरित्र एव आचार-विचार का वर्णन गुणस्थानकमारोह, जीवो के भेदाभेद, सात नय, निक्षेप, प्रमाण, नौ तत्व, गणित, विभिन्न धर्मकथाएँ, व्रत, तप आदि की विधियां बताई गई हैं । अत इन मव तथाकथित आगमो में कथित बातो का अर्थ प्रत्येक सम्प्रदाय, मत, पथ या गच्छ आदि अपनी परम्परा के अनुसार करता है और उसी को सच्ची बताता है। उसे ही वीतरागता का शुद्ध व यथार्थ मार्ग कहता है। श्रद्धालु व्यक्ति की बुद्धि परस्परविरोधी बाते देख कर चकरा जाती है। इसलिए आगमो से परमात्म के अमली मार्ग को खोजना वडा दुष्कर कार्य है। ___इसमे दूसरी कठिनाई यह है कि वीतरागप्रभु के मार्ग का आगमो मे अन्वेषण करने वाले साधक प्राय उनके माधु-धर्म पालन के समय आए हुए उपमर्ग और परिपह, उनके तप, त्याग, महाव्रत, पाच समिति, तीन गप्ति तथा निर्दोप मिदाचर्या आदि का वर्णन या साधक के लिए विधिरूप मे कथित मार्ग का वर्णन पढते है तो उनके रोगटे खडे हो जाते है। फलत प्रभ जिस वाह्यचारित्र के पथ मे गए, जो कठोर क्रियाकाण्ड प्रभु ने किए, स्वपरकल्याण के लिए जो घोर कप्ट-सहन प्रभु ने किए, सर्दी,-गर्मी आदि सहन करके जो कठोर साधना उन्होंने की , उम कठोर क्रियाकाण्ड के मार्ग को ही परमात्मा का मार्ग ममझ बैठते हैं । इस प्रकार बाह्य चारित्र में ही प्राय उनकी बुद्धि उलझी रहती है। ऐसे साधक स्वय भी उसी क्रियाकाण्ड-मार्ग का अनुसरण करके अपने को प्रभुमार्ग पर चलने वाले पथिक मानते है। इस कारण भी प्रभुपथ के रूप में प्रभु के द्वारा अन्तरग रूप मे आचरित स्वरूपरमणरूप चारित्र या स्वरूप का ज्ञान-दर्शन उनकी समझ मे प्राय आता नहीं। इसीलिए प्रभुपय का निर्णय आगम से दुर्लभ लगता है।
और फिर आगम या शास्त्र का जो लक्षण आचार्यों ने किया है, तदनुसार तो कई आगम आगम या शास्त्र की कोटि मे आने भी कठिन हो जाते है। क्योकि उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार शास्त्र की परिभाषा की गई है.---'जिसके