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अध्यात्म-दर्शन
वे समस्त दोपो गे रहित हो।'
जैनधर्म किनी विशेष नाग का पक्षपात नहीं करना और अपने ही नाने हुए किसी नाम को वन्दनीय मानने का आग्रत रखना 1 उनकी शिनी भी महान आत्मा को वन्दनीय मानने की गुणनिपम एक ही गाँटी है, और वह है-"राग-गादि भवनमणकारक दोपो का जिनमे अस्तित्व न हो । उनी दृष्टिकोण को ले कर श्रीआनन्दधनजी इन स्तुति ग वन्दनीय परमात्मा के गुणनिष्पन्न नामो का कमा उल्लेख करते है।
सात महाभय के निवारक जगत् के समस्त प्राणी अपने शरीर, इन्द्रियों, मन और प्राणों की तथा शरीर से सम्बन्धित राजीव-निर्जीव पदार्थों की रक्षा की चिन्ता में लगे रहते है, वे मुख्यतया सात महाभय हैं । वे मात महाभय इस प्रकार है--(१) इहलोकभय-इस लोक में मेरा क्या होगा? कौन मुझे सकटो मे वचाएगा? कौन खाने-पीने को देगा ? अथवा इन लोक में मेरी इच्छाओ की पूर्ति होगी या नहीं? मुकद्दमे, व्यापार-धंधे, परीक्षा आदि में मुझे सफलता मिलेगी या नहीं ? इस प्रकार की अहर्निश चिन्ता । (२) परलोकमय-पता नहीं, अगले जन्म मे मुझे नरकलोक मिलेगा या तियंञ्चलोक मिलेगा? अथवा मनुष्यलोक मिलेगा? और परलोक मे पता नहीं, कितनी यातनाएं सहनी पड़ेगी ? मनुप्यलोक मिल जाने पर भी शायद मुझे खराव वातावरण व अनेक नकटो से घिरा रहना पडे , इस प्रकार की नाना चिन्ताएँ। (३) आदानमय (माणभय)-अपनी धन-सम्पत्ति, या अन्य किमी ममत्त्वग्रस्त वस्तु के छीन जाने का डर, अथवा आदान यानी किमी से कोई वस्तु लेने जाने पर मिलेगी या नहीं ? इस प्रकार की फिक्र, या किमी भी प्रकार का सकट अथवा पीडा ने वचने की चिन्ता, अथवा किसी सकट के आ पडने पर अपनी या अपनी मानी हुई वन्तु की रक्षा का भय । (४) अकस्मात्भय =आकस्मिक मकट या दुर्घटना के उपस्थित हो जाने की भीति, (५) आजीविकाभय-अपनी जीविका या रोजी
यत्र तत्र समये योऽसि सोऽस्यभिधया यया तया । नीतदोष-कतुष.स चेत्, एक एव भगवन् नमोऽस्तु ते ॥