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________________ ४१० अध्यात्म-दर्शन नही देते । बरे को खोटा और खोटे को खरा मानना ही वस्तुतः मिथ्यात्व है। इसी प्रकार मिथ्यात्व के मुख्य ५ एव २५ भेद हैं। " भेद इस प्रकार हैं-आभिग्रहिक, अनाभिग्रहिक, आभिनिवेशिक, साशयिक एव अनाभोगिक मिथ्यात्व । (१) आभिग्रहिक - कुदेव को सुदेव, कुगुरु को मुगुरु एव कुधर्म को सुधर्म माने, पकटी हुई जिद्दछं डे नहीं, वहीं यह मिथ्यात्व है । (२) अनाभिग्राहकसभी देव, सभी गुरु और सभी धर्मों को बिना सोचे-समझे एक सरीखे माने, वहां यह मिथ्यात्व होता है । (३) आभिनिवेशिक---सन्चे देव आदि को न माने, पर वाप-दादो ने जो किया, उमे ही किया करे, गतानुगतिक हो, वहाँ यह मिथ्यात्व होता है। (४) सांशयिक-वीतराग आप्तपुरुषो के वचनो पर कुशका करे, सशय-निवारण न करे, वहां ऐसा मिथ्यात्व होता है । (५) अनामोगिक मिथ्यात्व--मूठता और बौद्धिक जड़ता के कारण अच्छे-बुरे का या हिताहित का भान न हो, धर्माधर्म का भी कुछ पता न चले; जहाँ एकेन्द्रियादि जीवो की तरह मोघसज्ञा से प्रवृत्ति हो, वहां यह मिथ्यात्व होता है। मिथ्यात्व के इन प्रकारो को देखते हुए सहज ही यह पता लग जाता है कि मिथ्यात्व आत्मा का सबसे ज्यादा महित करता है, वह सारी साधना को, सद्ज्ञान को, सद्बुद्धि को चौपट कर देता है, आत्मा जिन अच्छे विचारो को कार्यरूप मे परिणत करना चाहती है, मिथ्यात्व' उन सब कार्यक्रमो को उलटा कर देता है । यही कारण है कि वीतराग प्रभु इमे अपराधी एव अहितकर समझ कर सर्वथा बहिष्कृत कर देते हैं। अब अगली गाथा मे भगवान् ने हाम्यादि ६ दोपो का कैसे निवारण किया, इस विषय मे कहते हैं हास्य, अरति, रति, शोक, दुगछा, भय पामर करसाली। नोकपाय गजश्रेणी चढतां, श्वानतणी गति झाली, हो ॥म०॥५॥ अर्थ हास्य, अरति (चित्त का उद्वेग), रति [पाप मे प्रीति], शोक [अनिष्ट के सयोग और इष्ट के वियोग से होने वाली ग्लानि], दुग छा (जगुप्सा घणा, मानसिक ग्लानि), भय इन ६ पामर एवं कर्म की खेती करने वाले कृषक
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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