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अध्यात्म-गन
साधक को मन के विगी भी कोने ग यदि नरमादिपा भय छाया राना, या नरकादिभव-निवार यसो हटिग ही यह परमात्मनया का मार्ग करता है, अथवा परमात्मगवा का तय नन्दादि भर पा मिनी भय के निवारण का है . अथवा किनी अपयश, आग्मात् अपंदना, गुमला, या प्राण अपवा आजीरिका ने जान दर में परमात्मा की जानी है या अन्य किनी ग्वायं में भग पर जाने गे, टर की जानी : तो यह गाप्रेन्नि होने के कारण दीपयत है । मोकिम का अर्थ पग्गिामो में जनता आ जाना है। जब मनुष्य के मन में भय की जाग नगती है तो यह नन ना की लपटे उछालता है और मन मसान्मभावरमानापरमानना हट कर अमुक भय के चिन्तन में चना जाता है, चिन एमाग्र न रह फर हो जाता है। कई दफा मनुप्य परिवार, नमाज, जाति, चौम, नयनर ग या विमी तथानायिन महान् व्यन्फिरमे परमात्ममेवा में लगता। बदमा इनके दवाव मे या निन्दा ने दर ने गद्ध परमात्ममेवा के मार्ग की छट बैठना है। वास्तव मे ये सब, परमात्ममेवा मे नाट करने वाले नया मनोयोग को चचन बनाने वाले होने से विघ्नवान्क हैं । जाम्लों में भय के मुख्यतया ७ कारण बताये हैं-इहलोकमय, पग्लोरभय, जादान (छीन लेने का) अथवा अत्राण (असुरक्षा का) भय, आम्मात् (दुर्घटना हो जाने का) भय, आजीविका का भय, अपयमभय और मरणभय । माधक ने उन ७ भयो मे में कोई भी भय होगा तो वह रजोगुणी बन जागा, अस्थिर हो जायगा उनकी आत्मा शुद्वात्मभावरमणतात्पी परमात्मनेवा ने विमुत्र हो जाएगी। नगरक्त प्राणी कोई भी नत्कार्य नाहनपूर्वक नहीं कर नाता, वह लत्कार्य गन्ने मे दूनरो मे दवना है, सच्ची बात नहीं कह सकता, उनका जीवन नदा गपागम्न बना रहता है, ऐसी स्थिति में पमात्ममेवा के बारे में भी उनकी ममल स्याट नही होती, उसका ज्ञान-दर्शन सम्यक् नहीं होना ।
परमात्ममेवा मे द्वितीय विघ्न . द्वेष परीमात्मा क गवा का तात्पर्य शुद आत्मा की वा है । जब आत्मभाव मे भिन्न भावो-गरीर और गरीर ने सम्बन्धित वस्तुओ के प्रति गचि, प्रीति और उसका उत्कटस्प मोह या लालना होनी है जब अनगमभापो के प्रति गचि प्रवल होती है तो आत्मभावो की मेवा ( मात्मनेवा) के प्रति