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________________ परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध मे समाधान ही उखड जायगा, अधूरी वात सुन कर निन्दा करेगा, लोगो मे गलतफहमी फैलाएगा, खण्डन के लिए प्रवृत्त होगा ।अत इन दोनो दुर्गुणो से श्रोता और वक्ता दोनो की मानसिक वाचिक शान्ति खत्म हो जायगी ! इसीलिए श्रीआनन्दघनजी शान्तिमय आत्मदेव (शान्तिनाथजिनदेव से कहलाते है----'धीरज मन घरी सामलो' तुम मेरी बात को धर्य और एकाग्रचित्त हो कर सुनो। शान्ति-प्रतिभास क्या और कैसे ? श्री शान्तिनाथ भगवान् ने जिस रूप मे शान्ति प्राप्त की थी, उसी शान्ति का प्रतिभास (झलक, स्वरूप-प्रकाश या उपाय) सुनाने-समझाने के लिए वे प्रवृत्त होते हैं। शान्ति-प्रतिभास का अर्थ----शान्तिनाथ-प्रभु की झलक भी होता है, आत्मशान्ति की प्रतीति या उपाय भी होता है, अथवा शान्ति-स्वरूप प्रतिभास या झलक भी होता है । जो भी हो, अब क्रमश शान्ति के सम्बन्ध मे अगली गाथाओ मे कहते है-- भाव अविशुद्ध सुविशुद्ध जे, कह्या जिनवरदेव रे। ते तेम अवितत्थ सदहे, प्रथम ए शान्तिपदसेव रे ॥शान्ति०३।। अर्थ वीतराध-देव (शान्तिनाथ) परमात्मा ने औपशमिक आदि भाव, जो शुद्ध नहीं हैं अथवा जो भाव शुद्ध हैं, उन पर उस-उस प्रकार से उस उस रूप मे वे ! जैसे हैं, वैसे (यथातथ्य) ही श्रद्धा करे, सर्वप्रथम यही स्थान या पद शान्तिनाथ भगवान् के चरणकमल की अथवा शान्ति की आराधना व सेवा है। भाष्य शान्ति का प्रथम सोपान : यथार्थ श्रद्धा कई वार व्यक्ति किसी वस्तु का केवल बाह्यरूप देख कर उसके अन्तरगरूप की उपेक्षा करके वस्तु को या तो विपरीत रूप में मानता है, गलत वस्तु को, जिसका परिणाम भयकर है, आपात रमणीय देख कर उसे बढिया अथवा मनोज्ञ मान कर उसके वियोग मे दुखी हो कर हायतोवा मचाता है, उसके कारण (यानी इष्ट वियोग-अनिष्ट सयोग को कारण वह व्यक्ति अशान्त हो जाता है । अत सर्वप्रथम जिस वस्तुका जैसा स्वरूप, स्वभाव या परिणाम है ,
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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