SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमात्म-दर्गन की पिपासा प्रयाण प्रारम्भ होते ही उसका यह प्रश्न उठाना उचित भी है कि "परमात्मा के के दर्शन क्योकर होंगे? गैं उनके दर्शन पाने के लिए बहुत ही उत्सुक हूं। जब मैं वीतराग परमात्मा के दर्शन के सम्बन्ध मे विचार करने लगता हूं तो मुझे उनके दर्शन बहुत ही दुर्लभ, दुष्प्राप्य और कठिन प्रतीत होते हैं। यदि अब भी इतनी उच्चभूमिका पर आने के बाद भी परमात्मा का दर्शन नहीं प्राप्त कर सका तो मेरा जीवन व्यर्थ चला जायगा । परमात्मा का दर्शन प्राप्त किये विना मेरे लिए जगत् मे सब कुछ मिथ्या है, सारा विश्व अन्धकारमय एव दु समय है।" इसीलिए श्रीआनन्दघनजी कहते है-'दरसण तरसीए' आपके देवदुर्लभ दर्शन के लिए तरस रहा हूँ। आपके सम्यक् दर्शन के बिना मैंने समार की अनेक परिक्रमाएँ कर ली, अनेक जगह भटका, देवलोक मे भी गया, नरक, तिथंच और मनुष्यलोक मे पहुंचा , मगर किसी भी जगह सुख नहीं मिला । आपके सम्यग्दर्शन के विना सच्चा सुख प्राप्त होता भी कैसे ? क्योकि वहाँ मैं क्षणभगुर वैपयिक सुखो के चक्कर मे फस रहा , आपका सद्दर्शन पा कर शुद्धात्मतन्मयतास्पी आत्मिक सुख प्राप्त नहीं किया। अत में पूर्ण तत्परता के साथ सन्नद्ध हूँ। ___ चूंकि गाथा मे जिन-दर्शन पद है, इसलिए उसका सही अर्थ-वीतराग परमात्मा को आँखो मे देखना नहीं होता, अपितु परमात्मा को अन्तरात्मा से देखना होता है । अथवा दर्गनशब्द दर्शनमोहनीय कर्म के उपशम, क्षयोपशम या क्षय से होने वाली तन्वरुचि या तत्त्वार्थश्रद्धा के अर्थ मे है । अथवा वीतराग-परमात्मा का जो दर्शन है, उसे प्राप्त करना है यानी साधक को प्राप्त हुए क्षायोपशमिक या औपशमिक सम्यगर्णन से ही सन्तुष्ट हो कर वैठ जाना नहीं है, अपितु अनन्त क्षायिकसम्यग्दर्शन तक मुझे प्राप्त करना है, जो आज दुर्लभ हो रहा है , अथवा परमात्मदर्णन का मतलव शुद्ध आत्मा का दर्शन है। परमात्मदर्शन दुर्लभ क्यो ? आज कर्मों व कपाय, राग-द्वेप, मोह आदि विकारो के कारण शुद्ध (परम) आत्मा पर नाना आवरण आए हुए हैं, इसलिए उसकी झाकी नही हो रही है, उसके दर्शन में अनेक विघ्नबाधाएँ अडी खडी हैं, इसलिए परमात्मदर्शन दुर्लभ हो रहा है।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy