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अध्यात्म-दर्शन
कमे नमसूं ? अथवा किसे मान ?" कारण यह है कि योगी श्री मानन्दघनजी 'मुखमस्तीति वक्तव्यम्' (मुंह है, इसलिए वो नना ही चाहिए), अपनी उपस्थिति ग्तानी ही चाहिए, इस दृष्टि में नहीं बोल या पछ रहे हैं। उनके अन्तर मे सच्ची लगन लगी है। वे आत्मा की उस अवस्था में विपय मे या उस शुद्ध आत्मा के सम्बन्ध में जानना चाहते हैं, जो मोक्षरूपया परमात्मरूप बन सकती है? - वास्तव में किसी वस्तु की तह तक पहुंचने और उसके सम्बन्ध में जितने भी मुद्दे उपस्थित हो सकते हैं, उसकी छानबीन करके तत्वज्ञान का निरा पाने के लिए शका जिज्ञाना) प्रस्तुत करनी चाहिए। भगवतीसूत्र में भगवान महावीर स्वामी से गणधर इन्द्रभूति गोरम के द्वारा किये हुए ३६ हजार प्रश्नोत्तरी का उल्लेख है । यह तो जनदर्शन की प्राचीन शैली है कि जिजामा का या पृच्छा प्रस्तुत किये बिना उत्तमरुप से तत्वज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। इसी तरह किसी भी वस्तु का मागोपाग ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्राचीन जैन दानिको ने बताया था-' प्रमागो और नयो से ज्ञान होता है, इसी प्रकार निर्देश, स्वा. मित्व, साधन, अधिकरण, विधान, मत, सख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व आदि प्रश्नो के द्वारा प्रत्येक वस्तु का तलस्पर्शी ज्ञान हो जाता है। इसलिए इस प्रकार के प्रश्न-प्रतिप्रश्न एव शका-समाधान की पद्धति न्हुत ही उत्तम है, तत्वज्ञान की प्राप्ति के लिए आसान भी है, शिष्य-प्रशिप्य-परम्परा से लाभ के लिए ममीचीन भी है। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी ने आत्मतत्व के सम्बन्ध में अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत कर दी है।
आत्मतत्व के सम्बन्ध मे हो जिज्ञासा स्यो ? प्रश्न होता है कि योगी श्रीआनन्दघनजी ने आत्मतत्व के विषय मे शका प्रस्तुत क्यो की ? इसका परमात्मा की स्तुति ने क्या ताल्लुक है ? इस जिनामा का एक [ समाधानत्प] कारण तो . स्वय श्रीआनन्दघनत्री ने इमी गाथा के उत्तरार्द्ध में बताया है । परन्तु समाधान का मुख्य मुद्दा यह नहीं है। मुख्य मुद्दा तो यह है कि जैनधर्म की तमाम साधनाओ, व्रतो, -नियमों एवं
. १ 'प्रमाणनयंधिाम., निर्देश-स्वामित्व-साधनाधिकरण-विधानतः ।। 'सत्संख्यालेस्पर्शनकालान्तर-भावाल्पबहुत्त्वश्च-तत्वार्यसूत्र