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अध्यात्म-दर्शन
पहुँचती है, मगर चारित्र मे बनारूपी असिवाग से गिर जाय यानी आनाविरा. धना हो जाय तो अनन्तदु समयसगार के जन्म मरण प्राप्त होने की पूरी गम्भावना है।
यही कारण है कि श्रीआनन्दघन जी अपनी बात स्पष्ट कर देते हैधार सरवारनी सोहली दोहली' . ." मतलब यह है कि यद्यपि नरवार की धार (नोक) पर नाचना अत्यन्त कठिन है । इसमे जरा-सी अनावधानी होते ही प्राण खतरे में पड़ जाते हैं। किन्तु कोई सधा हुआ, कुशल-नटो द्वारा बाजीगरी वी कला मे प्रशिक्षित एव निपुण तनवार की तीक्ष्ण धार पर भी चल सकता है। उसके लिए तव तलवार की धार पर चलना को मुश्किल वात नहीं होती, वह आसान चीज हो जाती है, परन्तु पहले बताए अनुसार वीतरागपरमात्मा की चरणमेवा की धारा पर चलना अत्य न दुप्पर है। वह क्यो दुष्कर है ? यह हम पहले सक्षेप मे कह आए है ।
मनुष्यो के लिए तो ऐमी चरणमेवा दुष्कर है ही, पर जिन्हें ससार के सभी साधन सुलभ है, उन चारो प्रकार के देवो के लिए भी यह अत्यन्त दुप्फर है । यदि चरण-मेवा का अर्थ धूर, दीप, पुष्प, अक्षत, नैवेद्य आदि द्वारा प्रभु की बाह्य द्रव्यपूजा होता तो यह देवो और मनुष्यो के लिए क्या कठिन या ? और तव श्रीआनन्दघनजी को यह नही कहना पड़ता कि सेवनाधार पर रहे न देवा । इसलिए चरणसेवा का अयं बाह्य द्रव्यपूजा कथमपि मगन नहीं है। हाँ, भावपूजा या प्रतिपत्तिपूजा अर्थ कवचित् मगत हो सकता है। उसी प्रकार चरणसेवा का अर्थ प्रभु के स्यूलचरणो की मेवा भी व्यवहारानुकूल नहीं है । क्योकि वीतराग के म्यूलचरण तो तीर्थकर अवस्था में उनके जीवितकाल में ही प्राप्त हो सक्ने है । और मान लो, कोई तीर्थकर भगवान के जीवनकाल में भी मौजूद हो, और प्रभु के चरणो का छू लेता है या उनके चरण दबा कर उनकी वाह्य मेवा मान लेता है, किन्तु अगर उनकी चारित्रागधनारूप आज्ञा का पालन नहीं करता है, बल्कि उनकी आना ३ विपरीत आचरण, प्ररूपण या श्रद्धान करता है तो उस हालत मे वह चरणो की यथार्थ वाह्यमेवा भी कमे मानी जा सकती है ? और स्मूलमेवा का वह प्रदर्शन (दिखावा) कमे उमका वेडा पार कर सकता है ? इसलिए निष्कर्ष यह निकला कि तीर्थकर-अवस्था मे प्रभु की चरणसेवा भी उनकी आज्ञा के परिपालन से चरितार्थ हो सकती है, अन्यथा नहीं।