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परस्परविरोधी गुणों से युक्त परमात्मा
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लोक के समस्त भोर्गो से भी उत्कृष्ट स्वात्मरमणतारूपी भोगो के भोगी है। जब समस्त कर्मों की क्षय होता है, तब अयोगी-केवली गुणस्थानक मे और मोक्ष जाने के बाद वे न तो योगी रहते है, न भोगी। क्योकि वहा उनके समस्त योग दूर हो जाते हैं और अयोगी-गुणस्थानक मे पाँच ह्रस्व अक्षरो अ इ उ ऋ लु, के उच्चारण में जितना समय लगता है, उस समय न तो वे योगी है और न भोगी है ।
अव आइए चौथी गुणविभगी पर। इसमे भी तीन गुण है-वक्ता, मौनी और अवक्तामीनी। वक्ता तो प्रभु इसलिए हैं कि वे स्वय द्वादशागी का प्रवचन देते है और परमदेशना देते हैं तथा मौनी उमलिए है कि वे मुनियो के सघ के पति (म्वामी) है। अथवा वे सदा आत्मभाव मे निष्ठ होने से मौनी है। सावध या पापमय, आश्रवजनक उपदेश के सम्बन्ध मे वे वक्ता नही है, तथा वक्ता और मौनी होते हुए भी उस वक्त वे द्वादशागी के सिवाय कुछ वचन नहीं बोलते, इसलिए वे उस समय न तो बक्ता हैं, न मौनी है । अथवा वे अवक्तामौनी यो हैं कि जो जगत् मे है, उसी को वे कहते है, नया कुछ भी नहीं कहते, इसलिए वक्तृत्व से रहित है, तथापि देशना देते हैं, इसलिए वे मौन मे भी रहित है। इस प्रकार यह चीथी गुणविभगी भी प्रभु मे एक माथ अविरोधरूप से सगत हो जाती है ।
अव पाँचवी गुणविभगी का विचार करे। वह है-उपयोगी, अनुपयोगी और उपयोग-अनुपयोग-रहित ।
सामान्य छदमस्थ ज्ञान को तो कोई बात कहनी या जाननी हो तो उसके लिए उपयोग लगाना पडता है, परन्तु वीतराग-परमात्मा तो केवलज्ञान के धनी होते हैं, इसलिए विना ही उपयोग लगाए वे वात को जान-देख सकते है, इसलिए अनुपयोगी है, क्योकि उनमे ज्ञान-दर्शन का उपयोग सदा प्रवर्तमान रहता है। किन्तु प्रभु ज्ञान-दर्शन के उपयोगमय होने में उपयोगी है। अथवा आत्मा और उपयोग का अभेद उपचार करने से परमात्मा स्वत अनुपयोगी है। किन्तु योगमन्धन होने के बाद उन्हें ज्ञान का या दर्शन का उपयोग लगाने का कोई प्रयोजन नही रहता। उस समय वे न उपयोगी है, न अनुपयोगी। उनमे ज्ञानदर्शन का उपयोग सदा प्रवर्तमान रहता है, इसलिए वे अनुपयोग-रहित